रविवार, 18 फ़रवरी 2018

कश्मीर ,करगिल, आगरा और लखनऊ ------ विजय राजबली माथुर

कश्मीर संबंधी यह विवरण पढ़ कर 37 वर्ष पूर्व के कुछ समय वहाँ बिताए अपने संस्मरण याद पड़ गए। उस समय भी कश्मीर व लद्दाख(करगिल )   दोनों के निवासियों का व्यवहार काफी अच्छा पाया था। इस विवरण से ज्ञात हुआ कि आज भी वहाँ के लोग अच्छे ही हैं। 





* मई 1981 में होटल मुगल, आगरा से टेम्पोरेरी ट्रांसफर पर जो छह लोग होटल हाईलैंड्स, कर्गिल भेजे गए थे उनमें मैं एकाउंट्स सुपरवाइज़र और एक मेकेनिकल सुपरवाइज़र को छोड़ कर बाकी लोग जूनियर स्टाफ के थे। बाकी सब कोई भी टूरिस्ट ग्रुप आने पर व्यस्त रहते थे रात को मेरे पास कोई काम न होने के कारण  जब कभी एक्स्ट्रा ग्रुप आ गया तो बाजार से सब्जी,ब्रेड लेने मुझे ही भेजा जाता था। मैनेजर चावला साहब  कंजूसी के तहत एक्स्ट्रा स्टाक नहीं रखते थे। कभी -कभी जीप न देकर पैदल भेजते थे। एक बार लौटते समय तेज तूफानी हवाएं चलने लगीं ,संभावना बारिश आने की भी थी,मैंने एक जीप आता देख कर उसे टैक्सी समझते हुए रुकने का इशारा किया वह रुक गयी और मैं बारू जाना है कह कर बैठ गया। उतरने पर उस समय के रेट के मुताबिक़ रु.२/-का नोट ड्राइवर को देने लगा परन्तु उसने हाथ जोड़ कर मना कर दिया-साहब यह सरकारी गाडी है। जीप आगे बढ़ने पर मैंने देखा उस पर डायरेक्टर फिशरीज लिखा था अर्थात मेरे साथ दूसरी सवारी नहीं वह एक अधिकारी थे। एक हमारे मेनेजर और दुसरे वह लद्धाखी सरकारी  अधिकारी दोनों के व्यवहार बड़े आश्चर्यजनक रहे। जीप तेजी से चले जाने के कारण मैं तो धन्यवाद भी न दे सका था।

** प्रातः काल मैं जल्दी उठ जाता था और आस-पास टहलने निकल जाता था। एक बार टी.बी.अस्पताल की तरफ चला गया तो बाहरी आदमी देख कर सी.एम्.ओ.साहब ने बुलाया और अपना परिचय देकर मुझ से परिचय माँगा। मेरे यह बताने पर कि, होटल मुग़ल, आगरा में एकाउन्ट्स सुपरवाईजर हूँ और यहाँ टेम्पोरेरी ट्रांसफर पर होटल हाई लैण्ड्स  में आया हुआ हूँ।  उन्होंने यदा-कदा आते रह कर मिलने को कहा। विशिष्ट प्रश्न जो उन्होंने पूंछा वह यह था कि क्या आप लखनऊ के हैं ? मैंने प्रति-प्रश्न किया आपने कैसे पहचाना ? वैसे मेरा जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा लखनऊ की ही है। डा.साहब का जवाब था आपकी जबान में उर्दू की जो श्रीन्गी है वह लखनऊ में ही पायी जाती है दूसरी जगहों पर नहीं। हालांकि उस समय हमें लखनऊ छोड़े हुए १९ वर्ष व्यतीत हो चुके थे और मैं उर्दू पढ़ा भी नहीं था। घर में बोली जाने वाली बोली से ही डा. साहब ने पहचाना था जो खुद श्रीनगर के सुन्नी थे। 
***  होटल मालिक के बेटे बशीर अहमद जान साहब भी चुटकुले सुनाने  वालों में थे परन्तु उनके चुटकुलों को अश्लील नहीं कह सकते, उदाहरणार्थ उनका एक चुटकुला यह था-
 "करगिल आने से पहले पड़ता है द्रास। 
दूर क्यों बैठी हो ,आओ बैठें पास-पास। ।"   

बशीर साहब सुन्नी होते हुए भी भोजन से पूर्व बिस्कुट,ब्रेड,रोटी जो भी हो थोडा सा हाथ में लेकर मसल कर चिड़ियों को डालते थे। उन्होंने इसका कारण भी स्पष्ट किया था -एक तो हाथ साफ़ हो जाता है, दूसरे चिड़ियों के खाने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि, वह भोज्य पदार्थ खाने के योग्य है (क्योंकि यदि चिड़िया को तकलीफ होगी तो पता चलने पर उस भोजन का परित्याग करेंगे), और पुण्य तो है ही। चावला साहब  की श्रीमती जी के आने के बाद बशीर साहब श्री नगर लौट गए थे। 
बशीर साहब के पिताजी गुलाम रसूल जान साहब एम्.ई.एस.में ठेकेदार थे। उन्होंने श्री नगर के लाल चौक में 'हाई लैंड फैशंस 'नामक दुकान बेटों को खुलवा दी थी। लकड़ी के फर्श, छत और दीवारों के कमरे श्री नगर में बनवा कर ट्रकों से करगिल पहुंचवाए थे और यह 'होटल हाई लैंड्स'बनवाया था। बशीर साहब  बीच-बीच में आते रहते थे। सारे स्टाफ के साथ बशीर साहब का व्यवहार बहुत अच्छा था। 
**** चावला साहब के व्यवहार पर हमारे कुछ साथियों का वापिस आगरा लौटने का इरादा बना, मैं भी उनके साथ ही लौट लिया श्रीमती चावला ने हम लोगों को जीप से डोरमेटरी पहुंचा दिया था।  
हम लोग बस से सुबह  तडके  चल कर श्रीनगर  शाम को पहुंचे और रु.15/- प्रति बेड के हिसाब से एक शिकारा में सामान रखा। उसमें तीन बेड थे यदि और कोई आता तो उसे उसमें एडजस्ट करना था परन्तु कोई आया नहीं।  एस.पी. सिंह और मैं पहले रोडवेज के काउंटर पर गए और अगले दिन का जम्मू का टिकट लिया। फिर रात का खाना खाने के इरादे से बाजार में गए । वहां बशीर साहब ने  हमें देख लिया और पहले चाय-नाश्ता एक दूकान पर कराया और काफी देर विस्तृत वार्ता के बाद हम दोनों को एक रेस्टोरेंट में खाना भी उन्हीं ने खिलाया। 
शिकारा मालिक भी अच्छे व्यवहार के थे उनका वायदा था कि  अगले दिन वह बस के समय से पहले ही जगा देंगे किन्तु हम लोग खुद ही जाग गए ।  सुबह तड़के श्रीनगर से बस चल दी। शाम तक हम लोग जम्मू में थे। ट्रेन पकड़ कर आगरा के लिए रवाना हो गए और अगले दिन आगरा भी पहुँच गए। 

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