शुक्रवार, 2 दिसंबर 2016

क्या आज 'गर्म हवा ' के संदेश की ज़रूरत है ? ------ विजय राजबली माथुर



परिस्थियोंवश 1985 से 2000 तक आगरा के  हींग की मंडी  स्थित शू चैंबर की दुकानों में लेखा कार्य (ACCOUNTING ) द्वारा आजीविका निर्वहन करना पड़ा है। प्रत्यक्ष  रूप से जूता कारीगरों की समस्या को देखा समझा भी है कि, किस प्रकार थोक आढ़तिये  असली निर्माताओं का शोषण करते हैं। इसलिए जबसे गरम हवा का ज़िक्र सुना था इसका अवलोकन करना चाह रहा था ।  प्रस्तुत चित्र में जूता फेकटरी के मालिक सलीम मिर्ज़ा ( बलराज साहनी साहब ) पाकिस्तान से आए सिन्धी कारोबारियों के व्यवसाय और अपने करीबियों के पाकिस्तान चले जाने के बाद की स्थितियों से निबटने के लिए खुद भी कारीगरी करते हुये दिखाई दे रहे हैं। देश विभाजन के बाद भारत से गए मुस्लिम पाकिस्तान में और वहाँ से आए सिन्धी- पंजाबी यहाँ व्यवसाय में समृद्ध हो गए जबकि यहीं देश से लगाव के चलते रह गए मुस्लिम सलीम मिर्ज़ा की ही तरह दाने दाने को मोहताज हो गए। एक बार पलायन का विचार लाकर भी सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी ) और उनका छोटा पुत्र सिकंदर (फारूख शेख ) कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा रोज़ी रोटी के संघर्ष में शामिल हो गए और देशवासियों की बेहतरी के पुण्य कार्य में लग गए। यही संदेश सथ्यु साहब द्वारा इस फिल्म के माध्यम से दिया गया है। 

जबसे केंद्र में भाजपा के पूर्ण बहुमत की सरकार बनी है निरंतर रोजगार में गिरावट हुई है और सांप्रदायिक दुर्भावना का तीव्र विस्तार हुआ है। आज़ादी के समय की कम्युनिस्ट पार्टी आज कई कई पार्टियों  में बंट गई है और उनका आंदोलन जनता को आकर्षित करने में विफल है। नोटबंदी अभियान के बाद जनता त्रस्त है और भयभीत भी लेकिन 'एथीस्ट्वाद' : नास्तिकता रूपी दीवार खड़ी करने  के कारण कम्युनिस्ट नेतृत्व ने जनता  को अपनी ओर आने से रोक रखा है। आज जब जरूरत थी कि, पाखंडी सरकार का पर्दाफाश करके उसे जनता के समक्ष अधार्मिक सिद्ध कर दिया जाता और भारतीय वांगमय के आधार पर जनता को कम्यूनिज़्म की ओर ले आया जाता तो केंद्र में भी उसी प्रकार कम्युनिस्ट सरकार लोकतान्त्रिक तरीके से स्थापित हो जाती जिस प्रकार केरल में विश्व की प्रथम निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार बनी थी। काश गरम हवा कम्युनिस्ट नेतृत्व को 'एथीस्ट्वाद' : नास्तिकता रूपी दीवार ढहाने में मदद कर सके और देश की जनता फ़ासिज़्म की जकड़न में फँसने से बच जाये। 

संदर्भ : फिल्म गर्म हवा 





एम एस सथ्यू साहब से संवाद करते प्रदीप घोष साहब 





प्रथम पंक्ति में राकेश जी, विजय राजबली माथुर, के के वत्स 


लखनऊ में दिनांक 04 फरवरी, 2016 को कैफी आज़मी एकेडमी , निशांतगंज के हाल में सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक मैसूर श्रीनिवास सथ्यू साहब के साथ 'सिनेमा और सामाजिक सरोकार' विषय पर एक संवाद परिचर्चा का आयोजन कैफी आज़मी एकेडमी और इप्टा के संयुक्त तत्वावधान में किया गया था ।  
अपनी सुप्रसिद्ध फिल्म 'गर्म हवा' का ज़िक्र करते हुये सथ्यू साहब ने बताया  था कि ,यह इस्मत चुगताई की कहानी पर आधारित है किन्तु इसके अंतिम दृश्य में जिसको प्रारम्भ में पर्दे पर दिखाया गया था - राजेन्द्र सिंह बेदी की कहानी के कुछ अंशों को जोड़ लिया गया था। इस दृश्य में यह दिखाया गया था कि किस प्रकार मिर्ज़ा साहब (बलराज साहनी ) जब पाकिस्तान जाने के ख्याल से तांगे पर बैठ कर परिवार के साथ निकलते हैं तब मार्ग में रोज़ी-रोटी, बेरोजगारी, भुखमरी के प्रश्नों पर एक प्रदर्शन मिलता है जिसमें भाग लेने के लिए उनका बेटा (फारूख शेख जिनकी यह पहली फिल्म थी  ) तांगे से उतर जाता है बाद में अंततः मिर्ज़ा साहब तांगे पर अपनी बेगम को वापिस हवेली भेज देते हैं और खुद भी आंदोलन में शामिल हो जाते हैं। 

एक प्रश्न के उत्तर में सथ्यू साहब ने बताया था कि 1973 में 42 दिनों में 'गर्म हवा' बन कर तैयार हो गई थी। इसमें इप्टा आगरा के राजेन्द्र रघुवंशी और उनके पुत्र जितेंद्र रघुवंशी (जितेंद्र जी के साथ आगरा भाकपा में कार्य करने  व आदरणीय राजेन्द्र रघुवंशी जी को सुनने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त  हुआ है ) आदि तथा दिल्ली इप्टा के कलाकारों ने भाग लिया था। ताजमहल व फ़तहपुर सीकरी पर भी शूटिंग की गई थी। इप्टा कलाकारों का योगदान कला के प्रति समर्पित था। बलराज साहनी साहब का निधन हो जाने के कारण उनको कुछ भी न दिया जा सका बाद में उनकी पत्नी को मात्र रु 5000/- ही दिये तथा फारूख शेख को भी सिर्फ रु 750/- ही दिये जा सके थे। किन्तु कलाकारों ने लगन से कार्य किया था। सथ्यू  साहब ने एक अन्य प्रश्न के उत्तर में बताया कि, 'निशा नगर', 'धरती के लाल' व 'दो बीघा ज़मीन' फिल्में भी इप्टा कलाकारों के सहयोग से बनीं थीं उनका उद्देश्य सामाजिक-राजनीतिक चेतना को जाग्रत करना था। 

कुछ प्रश्नों के उत्तर में सथ्यू साहब ने रहस्योद्घाटन किया कि, यद्यपि 'गर्म हवा' 1973 में ही पूर्ण बन गई थी किन्तु 'सेंसर बोर्ड' ने पास नहीं किया था तब उनको प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी से संपर्क करना पड़ा था जिनके पुत्रों राजीव व संजय को वह पूर्व में 'क्राफ्ट' पढ़ा चुके थे। उन्होने बताया कि इंदिराजी अक्सर इन्स्टीच्यूट घूमने आ जाती थीं उनके साथ वी के कृष्णा मेनन भी आ जाते थे। वे लोग वहाँ चाय पीते थे, कभी-कभी वे कनाट प्लेस से खाना खा कर तीन मूर्ती भवन तक पैदल जाते थे तब तक सिक्योरिटी के ताम -झाम नहीं होते थे और राजनेता जन-संपर्क में रहते थे। काफी हाउस में उन्होने भी इंदर गुजराल व इंदिरा गांधी के साथ चर्चा में भाग लिया था। अतः सथ्यू साहब की सूचना पर इंदिराजी ने फिल्म देखने की इच्छा व्यक्त की जिसे तमाम झंझटों के बावजूद उन्होने दिल्ली ले जाकर दिखाया। इंदिराजी के अनुरोध पर सत्ता व विपक्ष के सांसदों को भी दिखाया और इस प्रकार सूचना-प्रसारण मंत्री गुजराल के कहने पर सेंसर सर्टिफिकेट तो मिल गया किन्तु बाल ठाकरे ने अड़ंगा खड़ा कर दिया अतः प्रीमियर स्थल 'रीगल थियेटर' के सामने स्थित 'पृथ्वी थियेटर' में शिव सेना वालों को भी मुफ्त फिल्म शो दिखाया जिससे वे सहमत हो सके। 1974 में यह फ्रांस के 'कान' में दिखाई गई और 'आस्कर' के लिए भी नामित हुई। इसी फिल्म के लिए 1975 में सथ्यू साहब को 'पद्मश्री' से भी सम्मानित किया गया और यह सम्मान स्वीकार करने के लिए गुजराल साहब ने फोन करके विशेष अनुरोध किया था अतः उनको इसे लेना पड़ा। 
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संदर्भ  :
http://krantiswar.blogspot.in/2016/02/blog-post.html
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