रविवार, 1 फ़रवरी 2015

खेल कारपोरेट ट्रेड यूनियनिज़्म का :'नमक हराम' से 'चक्रव्यूह' तक ---विजय राजबली माथुर



अब जब जाति और संप्रदाय पर आधारित ट्रेड यूनियन्स मैदान में हैं तथा सबसे बढ़ कर कारपोरेट ट्रेड यूनियन्स का बाज़ार गर्म है तब फासिस्ट सरकार के जमाने में इन सरकारी कर्मचारियों को कौन राहत दिलाएगा?
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हालांकि फिल्म निर्माता तो मनोरंजन और मुनाफे को ध्यान में रख कर आजकल फिल्में बनाते हैं। किन्तु आज़ादी से पहले और बाद में भी कुछ फिल्मों द्वारा समाज और राजनीति को नई दिशाएँ बताने का कार्य किया गया है। हाल की चक्रव्यूह और 40 वर्ष पुरानी नमक हराम फिल्में मालिक द्वारा मजदूर और किसानों के शोषण पर प्रकाश डालती तथा अपना समाधान प्रस्तुत करती हैं।

'नमक हराम' में बताया गया है कि विक्की और  सोनू दो अलग-अलग समाज वर्गों से आने के बावजूद एक अच्छे मित्र है।षड्यंत्र पूर्वक मजदूर नेता की हत्या कराये जाने से क्षुब्ध अमीर अपने धनाढ्य पिता से बदला लेने हेतु खुद हत्या का इल्ज़ाम लेकर जेल चला जाता है लेकिन पिता के गलत कार्यों में सहयोग नहीं करता है। 

'चक्रव्यूह' द्वारा कारपोरेट कंपनियों की लूट को सामने लाया गया है। इसी लूट के कारण आदिवासी किसानों के मध्य नक्सलवादी आंदोलन की लोकप्रियता पर भी प्रकाश डाला गया है और इस आंदोलन की आड़ में स्वार्थी तत्वों द्वारा आंदोलन से विश्वासघात का भी चित्रांकन किया गया है। 

'मजदूर' द्वारा भी मालिक-मजदूर के सम्बन्धों पर व्यापक प्रकाश डालते हुये पूंजीपति वर्ग की शोषण प्रवृति को उजागर किया गया है।  मजदूरों की संगठित एकता के बल पर समानान्तर रोजगार की उपलब्धि बताना भी इस फिल्म का लक्ष्य रहा है। IPTA और भाकपा में लोकप्रिय गीत की प्रस्तुति इस फिल्म में चार चाँद लगा देती है। :


लेकिन लाल इमली मिल के सरकारी मजदूरों  के समान अधिकांश मजदूरों को अब तक न्याय न मिलना सरकारी 'श्रम' विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार और पूंजीपति वर्ग की लूट के प्रति सहानुभूति ही जिम्मेदार है। क्या कारपोरेट और क्या सरकारी अंडरटेकिंग्स का प्रबंध तंत्र सभी गुंडों व दौलत का सहारा लेकर मजदूर वर्ग पर घोर अत्याचार ढाते जाते हैं कभी कभार ही अदालतों से किसी मजदूर को अपवाद स्वरूप न्याय मिल जाता है तो वह नगण्य ही है। निजी क्षेत्र में तो मेनेजमेंट सरलता से अपनी हितैषी यूनियनें बनवा कर मजदूर आंदोलन को विभक्त कर ही देता है। सरकारी क्षेत्रों के कर्मचारी नेता भी निजी लाभ के लिए अपने वर्ग से विश्वासघात करते हुये प्रबंध तंत्र को ही लाभ पहुंचाते रहते हैं। RSS प्रायोजित बी एम एस निजी क्षेत्रों में मजदूर विरोधी कृत्यों में संलग्न रहता है किन्तु सरकारी क्षेत्रों में जम कर प्रबंध तंत्र के विरुद्ध संघर्ष करता है जिससे वामपंथी यूनियनें भ्रमित होकर उसको अपने साथ जोड़े हुये हैं। जबकि बी एम एस का योगदान विनिवेश द्वारा निजीकरण को प्रोत्साहित करने का ही है। वामपंथी यूनियनों के नेताओं के विश्वासघात से सम्पूर्ण वामपंथी आंदोलन प्रभावित हुआ है और आज पूर्ण बहुमत की फासिस्ट सरकार सत्ता में आकर वर्तमान संविधान को नष्ट करने की प्रक्रिया शुरू कर चुकी है। उग्र-सशस्त्र क्रान्ति के समर्थक वामपंथियों के सिर पर दुधारी तलवार लटक रही है और संसदीय साम्यवाद के समर्थक दल RSS द्वारा फैलाये विभ्रम का शिकार होकर खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला रहे हैं। 
इसी प्रकार RSS प्रायोजित हज़ारे का समर्थन किया गया था जैसा कि अब केजरीवाल का किया जा रहा है जबकि यही शख्स बनारस में मोदी की आसान जीत के लिए जिम्मेदार है। जब सम्पूर्ण वामपंथ को केजरीवाल द्वारा ध्वस्त कर दिया जाएगा तब उनको मोदी के विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाएगा किन्तु फ़ासिज़्म तब तक चट्टानी व फौलादी बन चुका होगा और इसका खामियाजा संसदीय व क्रांतिकारी सभी वामपंथियों को भुगतना होगा। 

यदि अभी भी थोड़ा समय रहते ही साम्यवाद/वामपंथ को देश आधारित प्राकृतिक नियमों से सम्बद्ध कर लिया जाये तो हम जनता को समझा सकते हैं कि परमात्मा व प्रकृति की ओर से सभी जीवधारियों को समान अवसर प्राप्त हैं किन्तु पोंगापंथी ढ़ोंगी मजहब/संप्रदाय/रिलीजन शोषण का पोषण करते हैं अतः उनका परित्याग करके वास्तविक धर्म को अंगीकार किया जाये जिसे साम्यवादी/वामपंथी ही स्थापित कर सकते हैं । यदि हम ऐसा कर सके तो निश्चय ही सफलता हमारे चरण चूम लेगी। 
(संदर्भ:-
http://communistvijai.blogspot.in/2015/01/blog-post_30.html


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