रविवार, 9 नवंबर 2014

संकीर्ण एवं पोंगापंथी सोच 'साम्यवाद' को जन-प्रिय नहीं होने देंगे-----विजय राजबली माथुर





'एकला चलो रे' के अनुगामी कुमार कुलदीप साहब को इस लेख में काफी सच्चाई दिखाई दी :

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

सच का सामना किए बगैर जीतना मुमकिन नहीं ---

किन्तु आगरा भाकपा  व माकपा से सम्बद्ध कामरेड्स को इसी लेख पर घोर आपत्ति भी है।  हो सकता है कि ये दृष्टिकोण उन दोनों के व्यक्तिगत हों परंतु मुझे लगता है कि उनके दृष्टिकोण 'संकीर्ण एवं पोंगापंथी सोच' पर आधारित हैं। माकपा वाले वकील साहब तो 'लकीर के फकीर' वाले सिद्धान्त पर चलने वाले हैं अतः कुछ भी सुनना व मानना पसंद नहीं करेंगे। 

लेकिन भाकपा वाले इंजीनियर साहब ने 'पार्टी अनुशासन' का उल्लेख कर या तो बात को जान बूझ कर कुरेदा है या अतीत से मुंह फेर कर केवल अपनी सोच की पसंद ज़ाहिर की है। आगरा में पार्टी कार्यालय जिस सुंदर होटल, राजा-की-मंडी में पूर्व में स्थित था उसी कार्यालय में डॉ राम विलास शर्मा जी को उनके प्रगतिशील विचारों के कारण साईकिल की चेन से पीटने वाले दो कामरेड्स के विरुद्ध कौन सा अनुशासन लागू हुआ था? वे दोनों तो 9 +3 +9 वर्ष वहाँ जिलमंत्री भी बाद में बने थे जबकि डॉ राम विलास शर्मा जी को सेंट जान्स कालेज, आगरा का जाब छोड़ कर दिल्ली शिफ्ट होना पड़ा था। उसी कार्यालय में प्रदेश कंट्रोल कमीशन के सदस्य होते हुये भी रमेश कटारा साहब ने जिन कामरेड को पीटा था वह वैसे तो इंजीनियर साहब के पड़ौसी थे किन्तु उनको अपना व्यवसाय दिल्ली शिफ्ट करके चले जाना पड़ा। 

डॉ राम गोपाल सिंह चौहान साहब को कामरेड महादेव नारायण टंडन साहब शाहजहाँपुर से लेकर आए थे और जब मैं वहाँ पार्टी  में शामिल हुआ था उस वक्त तक बावजूद वृद्धावस्था के वह ज़िला पार्टी की रीढ़ थे। उस समय के जिलामंत्री कामरेड रमेश मिश्रा जी उनको अपना 'गुरु' कहते थे किन्तु कटारा द्वारा मिश्रा जी को वशीभूत कर लेने के बाद डॉ चौहान साहब मिश्रा जी से थोड़ा विचलित भी हुये थे।  बेइमानी का पर्याय  कटारा का मुक़ाबला करने के लिए ईमानदारी पर चलने के कारण उन्होने मुझको अपने  सामने ही अपने उत्तराधिकारी के रूप में कोषाध्यक्ष बनवा दिया था। सम्पूर्ण घटनाक्रम से खुद इंजीनियर साहब अवगत हैं। अब तो प्रदेश में कटारा का एक नया अवतार हावी है जो कि लखनऊ का ही सदस्य होते हुये भी  इंचार्ज बनने के कारण 'सुपर जिलामंत्री' के रूप में है जो ज़िला काउंसिल के मंच से सिर्फ उसके अपने प्रशंसकों को ही बात रखने के अवसर दिलवाता है। सही और सच्च बातों को सुना नहीं जाता है तो 'अनुशासन मानना ही पड़ेगा' और 'पार्टी के मंच से अपनी बात कहें' जैसे शब्दों का प्रयोग क्या इंगित करता है? यही न कि बावजूद इसके कि पार्टी की मान्यता 'एक राष्ट्रीय दल' के रूप में समाप्त होने के कगार पर पहुँच जाने के बावजूद अभी भी पार्टी को 'जन-प्रिय' नहीं होने देने का मंसूबा संकीर्ण एवं पोंगापंथी सोच वाले पाले बैठे हैं। कोई भी ऐसी बात जो पार्टी की स्वीकार्यता जनता में उत्पन्न कर सके इन निहित स्वार्थी तत्वों को मंजूर नहीं है और वैसी बात करने वालों को 'अनुशासन' का डंडा दिखा कर चुप करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य है। लेकिन वैसे अनुशासन से पार्टी का तो भला नहीं ही होगा , हाँ कटारा ब्रांड नीति-निर्धारक आगे भी लाभान्वित होते रहेंगे।

Link to this post-



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

ढोंग-पाखंड को बढ़ावा देने वाली और अवैज्ञानिक तथा बेनामी टिप्पणियों के प्राप्त होने के कारण इस ब्लॉग पर मोडरेशन सक्षम कर दिया गया है.असुविधा के लिए खेद है.

+Get Now!