बुधवार, 27 अगस्त 2014

हरदिल अजीज मुकेश---ध्रुव गुप्त

पुण्यतिथि (27 अगस्त) पर:
दिल ने हमको जो कहा
हमने वैसा ही किया
फिर कभी फुरसत से सोंचेंगे
भला था या बुरा
ज़िन्दगी ख्वाब है
ख्वाब में झूठ क्या
और भला सच है क्या !

हिंदी सिनेमा के महानतम गायकों में एक हरदिल अजीज मुकेश को हिंदी फिल्म संगीत के सुनहरे दौर में प्रेम की व्यथा का स्वर कहा गया। उनकी आवाज़ की संजीदगी, गहराई और रूह तक उतरती वेदना के साथ देश की कई पीढ़ियां जवान और बूढी हुईं। मुकेश की पुण्यतिथि (27 अगस्त) पर उनकी सुरीली स्मृतियों को हार्दिक नमन ! - 'गरचे दुनिया ने गमे इश्क़ को बिस्तर न दिया / तेरी आवाज़ के पहलू में भी नींद आती है !'


Gopal Rathi https://www.facebook.com/photo.php?fbid=792321557455766&set=a.283685641652696.69008.100000337875980&type=1
मुकेश ( जन्म- 22 जुलाई, 1923; मृत्यु- 27 अगस्त, 1976) भारत में संगीत इतिहास के सर्वश्रेष्‍ठ गायकों में से एक थे। पेशे से एक इन्जीनियर के घर में पैदा होने वाले मुकेश चन्द माथुर के अन्दर वह सलाहियत थी कि वह एक अच्छे गायक बन कर उभरें। और हुआ भी यही। कुदरत ने उनके अंदर जो काबलियत दी थी, वह लोगों के सामने आई और मुकेश की आवाज़ का जादू पूरी दुनिया के सिर चढ़ कर बोला।
मुकेश की आवाज़ की खूबी को उनके एक दूर के रिश्तेदार मोतीलाल ने तब पहचाना, जब उन्होंने उन्हें अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना। मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये और अपने घर में रहने दिया। यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिये रियाज़ का पूरा इन्तज़ाम किया। सुरों के बादशाह मुकेश ने अपना सफ़र 1941 में शुरू किया। 'निर्दोष' फ़िल्म में मुकेश ने अदाकारी करने के साथ-साथ गाने भी खुद गाए। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'माशूका', 'आह', 'अनुराग' और 'दुल्हन' में भी बतौर अभिनेता काम किया। उन्होंने सब से पहला गाना "दिल ही बुझा हुआ हो तो" गाया था। इसमें कोई शक नहीं कि मुकेश एक सुरीली आवाज़ के मालिक थे और यही वजह है कि उनके चाहने वाले सिर्फ हिन्दुस्तान ही नहीं, बल्कि अमरीका के संगीत प्रेमियों के दिलों को भी ख़ुश करते थे। के. एल. सहगल से मुतअस्सिर मुकेश ने अपने शरूआती दिनों में उन्हीं के अंदाज़ में गाने गाए। मुकेश का सफर तो 1941 से ही शुरू हो गया था, मगर एक गायक के रूप में उन्होंने अपना पहला गाना 1945 में फ़िल्म 'पहली नजर' में गाया। उस वक्त के सुपर स्टार माने जाने वाले 'मोती लाल' पर फ़िल्माया जाने वाला गाना 'दिल जल्ता है तो जलने दे' हिट हुआ था।
शायद उस वक्त मोतीलाल को उनकी मेहनत भी कामयाब होती नज़र आई होगी। क्योंकि वह ही वह जौहरी थे, जिन्होंने मुकेश के अंदर छुपी सलाहियत को परखा था और फिर मुम्बई ले आए थे। के. एल. सहगल की आवाज़ में गाने वाले मुकेश ने पहली बार 1949 में फ़िल्म 'अंदाज़' से अपनी आवाज़ को अपना अंदाज़ दिया। उसके बाद तो मुकेश की आवाज़ हर गली हर नुक्कड़ और हर चौराहे पर गूंजने लगी। 'प्यार छुपा है इतना इस दिल में, जितने सागर में मोती' और 'ड़म ड़म ड़िगा ड़िगा' जैसे गाने संगीत प्रेमियों के ज़बान पर चलते रहते थे। इन्हें गीतों ने मुकेश को प्रसिद्धि की ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया।
मुकेश ने उस जमाने के बहुचर्चित गायक के. एल. सहगल की गायन शैली की छत्रछाया में रहकर अपने गायन की शुरूआत की थी। मिसाल के तौर पर उनका पहला हिट गीत- दिल जलता है तो जलने दे... था। इस गीत ने उनको मशहूर पार्श्वगायक बनाया। संगीतकार थे अनिल विश्वास। आगे चलकर अनिल विश्वास ने ही मुकेश की गायन शैली को एक नई पहचान दी। दरअसल मुकेश की गायन शैली केएल सहगल से इतनी मिलती-जुलती थी कि कई बार तो संगीत प्रेमियों में वाद-विवाद छिड़ जाता था कि इस गाने का असली गायक कौन है। मुकेश की आवाज़ में छिपा दर्द, उस समय के दर्द भरे फिल्मी गीतों के लिए पूर्ण रूप से सटीक होता था, जिससे भारतीय श्रोता बड़े चाव से सुनते थे। सन् 1948 में संगीतकार नौशाद मुकेश से मिले और उनसे कई गीत गवाए। इन गीतों में, भूलने वाले याद ना आना..., तू कहे अगर..., झूम-झूम के नाचो आज..., टूटे ना दिल टूटे ना..., हम आज कहीं दिल खो बैठे....आदि उल्लेखनीय हैं। इन गीतों से मुकेश की आवाज़ दिलीप कुमार के लिए बहुत चर्चित हो गई।[1]
राजकपूर-मुकेश की जोड़ी

मुकेश को पहला मौका मिला राजकपूर को अपनी आवाज़ देने का केदार शर्मा निर्मित, निर्देशित और लिखिल फिल्म 'नीलकमल' (1947) में। इसी दौरान नौशाद ने मुकेश को अपनी गायन की एक अलग शैली विकसित करने की सलाह दी, जिससे मुकेश की अपनी एक अलग पहचान हो। फिल्म आग के बाद मुकेश राज कपूर की आवाज़ बन गए। यह दो जिस्म और एक जान का अनूठा संगम था। मुकेश तो पहले से ही राज के लिए फिल्म नीलकमल में- आंख जो देखे... गा चुके थे। उन्होंने अपनी ज़िंदगी का आखिरी गीत- चंचल, शीलत, निर्मल कोमल... भी राजकपूर की सत्यम, शिवम, सुदंरम फिल्म के लिए रिकॉर्ड करवाया। यह गीत उन्होंने अमेरिका के लिए रवाना होने से कुछ घंटे पहले रिकॉर्ड करवाया था। राजकपूर-मुकेश की जोड़ी ने एक-दूसरे की जरूरत बनकर सेल्युलाइड के इतिहास में मिसाल कायम की। 1949 से इस जोड़ी ने न जाने कितने अनगिनत यादगार गीत दिए। जैसे छोड़ गए बालम...., जिंदा हूं इस तरह..., रात अंधेरी दूर सवेरा..., दोस्त-दोस्त ना रहा..., जीना यहां मरना यहां..., कहता है जोकर...., जाने कहां गए वो दिन... आदि गीत हिंदी सिनेमा के सदाबहार नगमों में शामिल हैं। इसके अलावा आवारा हूं..., मेरा ना राजू..., मेरा जूता है जापानी..., मेरे मन की गंगा..., ओ मेहबूबा..., सरीखे गीत उनकी एक अलग प्रतिभा का उदाहरण हैं। लेकिन उनको सामान्यतया दर्द भरे गीतों का जादूगर माना जाता रहा। राज कपूर की लगभग सभी फिल्मों की आवाज़ थे मुकेश। कभी तो ऎसा लगता है मानो जैसे ईश्वर ने मुकेश को राजकपूर के लिए ही बनाया है या फिर राजकपूर मुकेश के लिए बने हैं। मुकेश के निधन की खबर सुनकर राज सन्न रह गए और उनके मुंह से निकल पड़ा- मैंने अपनी आवाज़ खो दी।[1]
दर्द का बादशाह

मुकेश ने गाने तो हर किस्म के गाये, मगर दर्द भरे गीतों की चर्चा मुकेश के गीतों के बिना अधूरी है। उनकी आवाज़ ने दर्द भरे गीतों में जो रंग भरा, उसे दुनिया कभी भुला नहीं सकेगी। "दर्द का बादशाह" कहे जाने वाले मुकेश ने 'अगर ज़िन्दा हूँ मै इस तरह से', 'ये मेरा दीवानापन है' (फ़िल्म यहुदी से), 'ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना' (फ़िल्म बन्दिनी से), 'दोस्त दोस्त ना रहा' (फ़िल्म सन्गम से), जैसे गानों को अपनी आवाज़ के जरिए दर्द में ड़ुबो दिया तो वही 'किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार' (फ़िल्म अन्दाज़ से), 'जाने कहाँ गये वो दिन' (फ़िल्म मेरा नाम जोकर से), 'मैंने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने' (फ़िल्म आनन्द से), 'कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है' (फ़िल्म कभी कभी से), 'चन्चल शीतल निर्मल कोमल' (फ़िल्म 'सत्यम शिवम सुन्दरम्' से) जैसे गाने गाकर प्यार के एहसास को और गहरा करने में कोई कसर ना छोड़ी। यही नहीं मकेश ने अपनी आवाज़ में 'मेरा जूता है जापानी' (फ़िल्म आवारा) जैसा गाना गाकर लोगों को सारा गम भूल कर मस्त हो जाने का भी मौका दिया। मुकेश द्वारा गाई गई 'तुलसी रामायण' आज भी लोगों को भक्ति भाव से झूमने को मजबूर कर देती है। क़रीब 200 से अधिक फ़िल्‍मो में आवाज़ देने वाले मुकेश ने संगीत की दुनिया में अपने आपको 'दर्द का बादशाह' तो साबित किया ही, इसके साथ साथ वैश्विक गायक के रूप में अपनी पहचान भी बनाई। 'फ़िल्‍म फ़ेयर पुरस्‍कार' पाने वाले वह पहले पुरुष गायक थे।
पुरस्कार
1959 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- सब कुछ सीखा हमनें (अनाड़ी)
1970 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- सबसे बड़ा नादान वही है (पहचान)
1972 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- जय बोलो बेइमान की जय बोलो (बेइमान)
1974 - नेशनल पुरस्कार- कई बार यूँ भी देखा है (रजनी गंधा)
1976 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है (कभी कभी)

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