बुधवार, 27 अगस्त 2014

हरदिल अजीज मुकेश---ध्रुव गुप्त

पुण्यतिथि (27 अगस्त) पर:
दिल ने हमको जो कहा
हमने वैसा ही किया
फिर कभी फुरसत से सोंचेंगे
भला था या बुरा
ज़िन्दगी ख्वाब है
ख्वाब में झूठ क्या
और भला सच है क्या !

हिंदी सिनेमा के महानतम गायकों में एक हरदिल अजीज मुकेश को हिंदी फिल्म संगीत के सुनहरे दौर में प्रेम की व्यथा का स्वर कहा गया। उनकी आवाज़ की संजीदगी, गहराई और रूह तक उतरती वेदना के साथ देश की कई पीढ़ियां जवान और बूढी हुईं। मुकेश की पुण्यतिथि (27 अगस्त) पर उनकी सुरीली स्मृतियों को हार्दिक नमन ! - 'गरचे दुनिया ने गमे इश्क़ को बिस्तर न दिया / तेरी आवाज़ के पहलू में भी नींद आती है !'


Gopal Rathi https://www.facebook.com/photo.php?fbid=792321557455766&set=a.283685641652696.69008.100000337875980&type=1
मुकेश ( जन्म- 22 जुलाई, 1923; मृत्यु- 27 अगस्त, 1976) भारत में संगीत इतिहास के सर्वश्रेष्‍ठ गायकों में से एक थे। पेशे से एक इन्जीनियर के घर में पैदा होने वाले मुकेश चन्द माथुर के अन्दर वह सलाहियत थी कि वह एक अच्छे गायक बन कर उभरें। और हुआ भी यही। कुदरत ने उनके अंदर जो काबलियत दी थी, वह लोगों के सामने आई और मुकेश की आवाज़ का जादू पूरी दुनिया के सिर चढ़ कर बोला।
मुकेश की आवाज़ की खूबी को उनके एक दूर के रिश्तेदार मोतीलाल ने तब पहचाना, जब उन्होंने उन्हें अपनी बहन की शादी में गाते हुए सुना। मोतीलाल उन्हें बम्बई ले गये और अपने घर में रहने दिया। यही नहीं उन्होंने मुकेश के लिये रियाज़ का पूरा इन्तज़ाम किया। सुरों के बादशाह मुकेश ने अपना सफ़र 1941 में शुरू किया। 'निर्दोष' फ़िल्म में मुकेश ने अदाकारी करने के साथ-साथ गाने भी खुद गाए। इसके अतिरिक्त उन्होंने 'माशूका', 'आह', 'अनुराग' और 'दुल्हन' में भी बतौर अभिनेता काम किया। उन्होंने सब से पहला गाना "दिल ही बुझा हुआ हो तो" गाया था। इसमें कोई शक नहीं कि मुकेश एक सुरीली आवाज़ के मालिक थे और यही वजह है कि उनके चाहने वाले सिर्फ हिन्दुस्तान ही नहीं, बल्कि अमरीका के संगीत प्रेमियों के दिलों को भी ख़ुश करते थे। के. एल. सहगल से मुतअस्सिर मुकेश ने अपने शरूआती दिनों में उन्हीं के अंदाज़ में गाने गाए। मुकेश का सफर तो 1941 से ही शुरू हो गया था, मगर एक गायक के रूप में उन्होंने अपना पहला गाना 1945 में फ़िल्म 'पहली नजर' में गाया। उस वक्त के सुपर स्टार माने जाने वाले 'मोती लाल' पर फ़िल्माया जाने वाला गाना 'दिल जल्ता है तो जलने दे' हिट हुआ था।
शायद उस वक्त मोतीलाल को उनकी मेहनत भी कामयाब होती नज़र आई होगी। क्योंकि वह ही वह जौहरी थे, जिन्होंने मुकेश के अंदर छुपी सलाहियत को परखा था और फिर मुम्बई ले आए थे। के. एल. सहगल की आवाज़ में गाने वाले मुकेश ने पहली बार 1949 में फ़िल्म 'अंदाज़' से अपनी आवाज़ को अपना अंदाज़ दिया। उसके बाद तो मुकेश की आवाज़ हर गली हर नुक्कड़ और हर चौराहे पर गूंजने लगी। 'प्यार छुपा है इतना इस दिल में, जितने सागर में मोती' और 'ड़म ड़म ड़िगा ड़िगा' जैसे गाने संगीत प्रेमियों के ज़बान पर चलते रहते थे। इन्हें गीतों ने मुकेश को प्रसिद्धि की ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया।
मुकेश ने उस जमाने के बहुचर्चित गायक के. एल. सहगल की गायन शैली की छत्रछाया में रहकर अपने गायन की शुरूआत की थी। मिसाल के तौर पर उनका पहला हिट गीत- दिल जलता है तो जलने दे... था। इस गीत ने उनको मशहूर पार्श्वगायक बनाया। संगीतकार थे अनिल विश्वास। आगे चलकर अनिल विश्वास ने ही मुकेश की गायन शैली को एक नई पहचान दी। दरअसल मुकेश की गायन शैली केएल सहगल से इतनी मिलती-जुलती थी कि कई बार तो संगीत प्रेमियों में वाद-विवाद छिड़ जाता था कि इस गाने का असली गायक कौन है। मुकेश की आवाज़ में छिपा दर्द, उस समय के दर्द भरे फिल्मी गीतों के लिए पूर्ण रूप से सटीक होता था, जिससे भारतीय श्रोता बड़े चाव से सुनते थे। सन् 1948 में संगीतकार नौशाद मुकेश से मिले और उनसे कई गीत गवाए। इन गीतों में, भूलने वाले याद ना आना..., तू कहे अगर..., झूम-झूम के नाचो आज..., टूटे ना दिल टूटे ना..., हम आज कहीं दिल खो बैठे....आदि उल्लेखनीय हैं। इन गीतों से मुकेश की आवाज़ दिलीप कुमार के लिए बहुत चर्चित हो गई।[1]
राजकपूर-मुकेश की जोड़ी

मुकेश को पहला मौका मिला राजकपूर को अपनी आवाज़ देने का केदार शर्मा निर्मित, निर्देशित और लिखिल फिल्म 'नीलकमल' (1947) में। इसी दौरान नौशाद ने मुकेश को अपनी गायन की एक अलग शैली विकसित करने की सलाह दी, जिससे मुकेश की अपनी एक अलग पहचान हो। फिल्म आग के बाद मुकेश राज कपूर की आवाज़ बन गए। यह दो जिस्म और एक जान का अनूठा संगम था। मुकेश तो पहले से ही राज के लिए फिल्म नीलकमल में- आंख जो देखे... गा चुके थे। उन्होंने अपनी ज़िंदगी का आखिरी गीत- चंचल, शीलत, निर्मल कोमल... भी राजकपूर की सत्यम, शिवम, सुदंरम फिल्म के लिए रिकॉर्ड करवाया। यह गीत उन्होंने अमेरिका के लिए रवाना होने से कुछ घंटे पहले रिकॉर्ड करवाया था। राजकपूर-मुकेश की जोड़ी ने एक-दूसरे की जरूरत बनकर सेल्युलाइड के इतिहास में मिसाल कायम की। 1949 से इस जोड़ी ने न जाने कितने अनगिनत यादगार गीत दिए। जैसे छोड़ गए बालम...., जिंदा हूं इस तरह..., रात अंधेरी दूर सवेरा..., दोस्त-दोस्त ना रहा..., जीना यहां मरना यहां..., कहता है जोकर...., जाने कहां गए वो दिन... आदि गीत हिंदी सिनेमा के सदाबहार नगमों में शामिल हैं। इसके अलावा आवारा हूं..., मेरा ना राजू..., मेरा जूता है जापानी..., मेरे मन की गंगा..., ओ मेहबूबा..., सरीखे गीत उनकी एक अलग प्रतिभा का उदाहरण हैं। लेकिन उनको सामान्यतया दर्द भरे गीतों का जादूगर माना जाता रहा। राज कपूर की लगभग सभी फिल्मों की आवाज़ थे मुकेश। कभी तो ऎसा लगता है मानो जैसे ईश्वर ने मुकेश को राजकपूर के लिए ही बनाया है या फिर राजकपूर मुकेश के लिए बने हैं। मुकेश के निधन की खबर सुनकर राज सन्न रह गए और उनके मुंह से निकल पड़ा- मैंने अपनी आवाज़ खो दी।[1]
दर्द का बादशाह

मुकेश ने गाने तो हर किस्म के गाये, मगर दर्द भरे गीतों की चर्चा मुकेश के गीतों के बिना अधूरी है। उनकी आवाज़ ने दर्द भरे गीतों में जो रंग भरा, उसे दुनिया कभी भुला नहीं सकेगी। "दर्द का बादशाह" कहे जाने वाले मुकेश ने 'अगर ज़िन्दा हूँ मै इस तरह से', 'ये मेरा दीवानापन है' (फ़िल्म यहुदी से), 'ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना' (फ़िल्म बन्दिनी से), 'दोस्त दोस्त ना रहा' (फ़िल्म सन्गम से), जैसे गानों को अपनी आवाज़ के जरिए दर्द में ड़ुबो दिया तो वही 'किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार' (फ़िल्म अन्दाज़ से), 'जाने कहाँ गये वो दिन' (फ़िल्म मेरा नाम जोकर से), 'मैंने तेरे लिये ही सात रंग के सपने चुने' (फ़िल्म आनन्द से), 'कभी कभी मेरे दिल में खयाल आता है' (फ़िल्म कभी कभी से), 'चन्चल शीतल निर्मल कोमल' (फ़िल्म 'सत्यम शिवम सुन्दरम्' से) जैसे गाने गाकर प्यार के एहसास को और गहरा करने में कोई कसर ना छोड़ी। यही नहीं मकेश ने अपनी आवाज़ में 'मेरा जूता है जापानी' (फ़िल्म आवारा) जैसा गाना गाकर लोगों को सारा गम भूल कर मस्त हो जाने का भी मौका दिया। मुकेश द्वारा गाई गई 'तुलसी रामायण' आज भी लोगों को भक्ति भाव से झूमने को मजबूर कर देती है। क़रीब 200 से अधिक फ़िल्‍मो में आवाज़ देने वाले मुकेश ने संगीत की दुनिया में अपने आपको 'दर्द का बादशाह' तो साबित किया ही, इसके साथ साथ वैश्विक गायक के रूप में अपनी पहचान भी बनाई। 'फ़िल्‍म फ़ेयर पुरस्‍कार' पाने वाले वह पहले पुरुष गायक थे।
पुरस्कार
1959 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- सब कुछ सीखा हमनें (अनाड़ी)
1970 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- सबसे बड़ा नादान वही है (पहचान)
1972 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- जय बोलो बेइमान की जय बोलो (बेइमान)
1974 - नेशनल पुरस्कार- कई बार यूँ भी देखा है (रजनी गंधा)
1976 - फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार- कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है (कभी कभी)

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शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

इन्सानी भाई चारे का संदेश है 'काबुलीवाला'---विजय राजबली माथुर






गुरुदेव रवीन्द्र नाथ ठाकुर की सुप्रसिद्ध कहानी 'काबुलीवाला ' पर आधारित बिमल राय साहब द्वारा 1961 में प्रस्तुत  इसी नाम की फिल्म द्वारा मानवीय संवेगों तथा भाई चारे को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रदर्शित किया गया है।

अब्दुल रेहमान खान (बलराज साहनी ) काबुल में अपनी वृदधा माँ और नन्ही बच्ची अमीना (बेबी फरीदा ) के साथ गुज़र-बसर कर रहे थे। ज़मीन और मकान का कर्ज़ अदा करने की खातिर उनको हिंदुस्तान आकर मेवा बेचने वाले का कार्य करना पड़ा।  फेरी लगाने के दौरान खान साहब को एक नन्ही बच्ची मिनी (सोनू ) में अपनी पुत्री अमीना की छ्वी नज़र आई और वह उसे मेवे देने के बहाने से अक्सर मिलने आने लगे। मिनी के पिता श्री (साजन ) एक सहृदय लेखक थे उनको तो खान और अपनी बेटी की मुलाक़ात पर एतराज़ न था किन्तु उसकी माँ रमा (ऊषा किरण ) को यह पसंद न था उनको भय था कि खान उनकी बच्ची का अपहरण कर ले जाएगा। अतः मिनी को खान से मिलने पर प्रतिबंध लगा दिया जबकि खान साहब ने मिनी को उसके जन्मदिन पर आने का वायदा कर दिया था ।गुलज़ार साहब के डाइरेक्शन में छोटे-छोटे बच्चों द्वारा  वाद्य संगीत तथा मिनी के नृत्य का दृश्य बेहद मनोहारी है।   मिनी के बुलावे पर  आए तो खान साहब परंतु  उनकी मुलाक़ात नहीं करवाई गई।मिनी ने उनके हिस्से का नाश्ता छिपा कर रख लिया और अगले दिन उनको ढूंढ कर देने निकली तो भटक गई और बारिश में भीग कर एक पार्क के चबूतरे पर सो गई। 

घर के लोगों ने समझा कि काबुलीवाला ही उसे उठा ले गया किन्तु उसके पिता को उन पर भरोसा था वह जानते भी थे कि मिनी ने उनके लिए नाश्ता छिपाया हुआ था । पता चलने पर खान साहब भी मिनी को ढूँढने निकले और मिलने पर उसे गोद में लेकर घर पहुंचाने चले परंतु मोहल्ले के लोगों ने उन पर हमला करके घायल कर दिया। मिनी के पिताजी ने उनको बचाया परंतु घटना का मानसिक आघात और बारिश में भींगने से मिनी को बुखार आ गया। डॉ साहब (अरुण बोस ) ने उपचार तथा खान साहब ने 'दुआ ' की जिससे मिनी ठीक हो गई। 

अपनी बेटी की याद आने से खान साहब अपने वतन काबुल लौटने के लिए उधार वसूली करने को निकले तो एक शाल उधार  लेने वाले  ने न केवल इन्कार कर दिया बल्कि गाली-गुफ्तार भी कर दी जिस पर संघर्ष में वह खान साहब के हाथों मारा गया। अदालत में वकील के झूठ समझाने के बावजूद सिद्धांतों पर अडिग खान साहब ने सच्चाई बयान की जिस पर प्रसन्न होकर जज साहब ने कहा कि आज के जमाने में भी सच्चाई पर चलने के कारण वह मौत की बजाए खान साहब को दस वर्ष कारावास की सजा देते हैं। 

जब खान साहब सजा काट कर लौटे तो उस रोज़ मिनी की शादी थी। खान साहब ने मिनी के पिताजी द्वारा पूछने पर बताया कि उनके देश में भी सरकार अमीरों का ही  ख्याल रखती है और उन जैसे गरीब लोगों को किस्मत के भरोसे जीना होता है। सजावट,बाजे के लिए जमा रकम मिनी के पिताजी ने उससे मिलने आए खान साहब को उनकी बेटी अमीना की शादी के लिए ज़बरदस्ती सौंप दी तथा मिनी ने भी अपनी पसंद के कंगन अमीना के लिए भेंट कर दिये। खान साहब तो छोटी-छोटी लाल चूड़ियाँ ही मिनी के लिए उतना ही छोटा बच्चा समझ कर लाये थे।

 मिनी और उनके पिता श्री द्वारा खान साहब के प्रति जो उदारता व सदाशयता ' काबुलीवाला ' कहानी में गुरुवर रवीन्द्र नाथ ठाकुर साहब ने दिखाई थी उसे इस फिल्म में निर्माता बिमल राय व निर्देशक हेमेन गुप्ता ने ज्यों का त्यों कायम रखा है। 53 वर्ष पूर्व प्रदर्शित यह फिल्म आज भी ज्यों का त्यों समाज व राष्ट्र के समक्ष सांप्रदायिकता के विरुद्ध संघर्ष में सहायक है। 16 वीं लोकसभा चुनावों के पूर्व व पश्चात जिस प्रकार सांप्रदायिकता को उभार कर व्यापार जगत ने सामाजिक सौहार्द को नष्ट  करके मानवता का हनन किया है उसको काबू करने में  'काबुलीवाला ' बहुत हद तक सफल साबित हो सकती है।


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मंगलवार, 19 अगस्त 2014

सच्चाई कुछ और है ---विजय राजबली माथुर



चाहे जितनी बंदर सफारियां बना ली जाये समस्या ज्यों की त्यो रहेगी। हमारे अनुभव में तो वृन्दावन जाना हमेशा नुकसानदायक रहा है। परंतु माँ के लगाव के कारण पिताजी भी अक्सर जाते थे और हम लोग बच्चा होने के कारण जाने को बाध्य थे। लेकिन तब ये बंदर इस प्रकार लोगों को परेशान नहीं करते थे और न ही तब गुसाईं लोग ज़ोर ज़बरदस्ती करते थे। 

मथुरा के विश्राम घाट क्षेत्र में अब तो छोटे-छोटे गुसाईं पुत्र लोगों को दक्षिणा लेकर विश्राम घाट घुमाने की बात उठा कर घेर लेते हैं और जो दक्षिणा नहीं दे सकते उनको विश्राम घाट नहीं पहुँचने देते हैं। हमारे रिश्तेदार एक भाई बल्केश्वर कालोनी ,आगरा में रहते हैं और मेडिकल प्रेक्टिस करते हैं। उनकी सुसराल मथुरा में होने के कारण बहुधा जाते रहते हैं तब वृन्दावन के बाँके बिहारी मंदिर भी जाते हैं। उनके जरिये मालूम हुआ कि इन बंदरों को प्रशिक्षित करके वृन्दावन लाया गया है और इन बंदरों के जरिये गुसाईं लोग आने वाले लोगों को ठगने का कार्य करते हैं। जो लोग चश्मा पहनते हैं बंदर उनका चश्मा छीन कर भाग जाते हैं फिर गुसाईयों को रु 100/-कम से कम भेंट करने पर वे उस बंदर से चश्मा लाकर वापिस देते हैं। इसलिए वे लोग सफारी में भेजने के लिए बंदरों को पकड़ने ही नहीं देंगे। 

सत्य तो यह है कि तथाकथित तीर्थ स्थान आज कल ठगी और लूट-व्यापार के केंद्र बने हुये हैं। ढ़ोंगी आस्था के नाम पर जो लोग वहाँ पहुँचते है अपना शोषण करा कर ही वापिस लौटते हैं। व्यापारियों और पुजारियों की मिली भात से यह लूट चलती है और वे बिलकुल भी अपनी आम्दानी कम नहीं होने देंगे उनसे चढ़ावे की रकम से सुविधाओं की अपेक्षा करना व्यर्थ है।  

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सोमवार, 4 अगस्त 2014

समाज में विषमता व कृषक उत्पीड़न को उजागर करती है 'दुश्मन' ---विजय राजबली माथुर



कल 03 अगस्त को जब विश्व मैत्री दिवस था हमने दुलाल गुहा साहब निर्देशित व 1971 में प्रदर्शित 'दुश्मन' का अवलोकन किया था। फिल्म की शुरुआत में दिखाया गया है कि मस्त-मौला ट्रक ड्राईवर सुरजीत सिंह (राजेश खन्ना) द्वारा मार्ग में टायर पंचर होने पर सहायक से उसे बदलने को कह कर सारी रात चमेली (बिन्दु ) के कोठे पर बिताने के कारण विलंब हो गया था अतः घने कुहासे में तीव्र गति से ट्रक चलाने के कारण एक गरीब किसान रामदीन अपने एक बैल सहित उसके नीचे आकर जीवन से हाथ धो बैठता है। अदालत में केस चलता है और रामदीन की विधवा मालती (मीना कुमारी जिनकी शायद यह अंतिम फिल्म थी ) जज साहब के घर पर अपने विकलांग  श्वसुर गंगा दीन के साथ जाकर यह कहती है कि अपराधी को सजा देने से उसके परिवार के कष्ट न दूर होंगे न ही रामदीन वापिस मिलेगा अतः उनके खुद के परिवार के सदस्यों को मौत की सजा दे दें।

सुधारात्मक न्याय व्यवस्था : 

जज साहब गहन मंथन करते हैं और स्वप्न में उच्च अदालत से अपना मन्तव्य बताते हैं जिस पर अमल करने की उनको स्वप्न में ही अनुमति मिल जाती है। एक अनोखे और गैर-पारंपरिक निर्णय में जज साहब ने सुरजीत को दो वर्ष की कैद की सजा सुनाई परंतु उसे जेल में न रख कर रामदीन के घर पर रह कर उसके परिवार के भरण -पोषण की ज़िम्मेदारी सौंपी।जिसे सुरजीत द्वारा प्राण पण से निभाया गया अतः ग्रामीणों का लगाव व प्रेम भी उसे प्राप्त हुआ जिसका इजहार उसने प्रस्तुत गीत में इन शब्दों द्वारा किया है-'जंजीरों से भी मजबूत हैं ये प्रेम के कच्चे धागे'।

इस निर्णय द्वारा फ़िल्मकार का दृष्टिकोण 'दंडात्मक' के बजाए 'सुधारात्मक' न्याय व्यवस्था के प्रति लोगों को जागरूक करना था । परंतु लोग बाग तो महज मनोरंजन के दृष्टिकोण से ही  फिल्में देखते हैं किसी ओर से भी ऐसी पहल की मांग नहीं उठाई गई आज 43 वर्षों बाद भी लोग 'फांसी-फांसी' के नारों के साथ प्रदर्शन करते हैं और 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की ' की तर्ज़ पर नित नए-नए अपराधों की बाढ़ आती जाती है।

कुलक व्यवस्था :

हालांकि न तो सुरजीत को न ही गंगा दीन के परिवारीजनों को यह निर्णय पसंद आया था परंतु अदालत का आदेश था तो परिपालन तो करना ही पड़ा। विपरीत और विषम परिस्थितियों में सुरजीत ने कष्टों को सह कर भी गंगा दीन व उसके दिवंगत पुत्र राम दीन के परिवारीजनों की सतत सहायता करने के प्रयास जारी रखे ।

सुरजीत को यह भी एहसास हुआ कि जमींदारी प्रथा समाप्त होने के बावजूद किस प्रकार व्यापारी/पूंजीपति वर्ग भोले-भाले किसानों की अज्ञानता का लाभ उठा कर उनके खेतों को गिरवी रखवा लेता था और फिर धोखे से अपने नाम रजिस्ट्री करवा कर फार्म हाउस बना कर गुलछर्रे उड़ाता था। यह कुलक वर्ग न केवल ज़मीनों बल्कि किसानों की बहुओं व बेटियों पर भी गलत निगाहें रखता था । रामदीन की बहन कमला (नाज़ ) को कुलक सूरज की तिकड़मों को धता बताते हुये सुरजीत ने उसके बचपन के प्रेमी शेखर से विवाह कराने में मदद दी । इसमें सुरजीत को सहयोग मिला फूलमती (मुमताज़ ) का जो अपने नाना के पास रह कर बच्चों का मनोरंजन करके आजीविका चलाती थी।

पाखंड व ढोंग का पर्दाफाश :

रामदीन की  अकाल मृत्यु के संबंध में सुरजीत को गाँव वालों से उसके द्वारा खरीदे नए खेतों में  एक वृक्ष  पर 'ज़िंदा चुड़ैल ' के बारे में ज्ञात हुआ तो उसने उनका वहम  सदा के लिए समाप्त करने हेतु उसे काट डालने का निर्णय कर डाला। जब वह वहाँ पहुंचा तो पोंगा पंडित द्वारा प्रेरित कलाकार फूलमती को वहाँ पाया जिसने खुद सुरजीत को भूत कह कर संबोधित  किया था जिसके जवाब में उसने पूछा कि तो तुम्ही ज़िंदा चुड़ैल हो?

वह पोंगा पंडित भूत-चुड़ैल की शांति के नाम पर ग्रामीणों को ठगता था। सुरजीत द्वारा वह वृक्ष उखाड़ फेंकने से उसका धंधा ध्वस्त हो गया तथा उसे ग्रामीणों के तीव्र आक्रोश का सामना करना पड़ा था। ऐसे वक्त में सुरजीत ने ही उसकी जान बचाई थी जिसके बदले में वह कमला-शेखर की शादी कराने हेतु उस वक्त उसे पकड़ लाया था। 

शेखर और फूलमती को एक ठग ज्योतिषी से संपर्क करते दिखा कर फ़िल्मकार ने समाज में व्याप्त अज्ञान व अदूरदर्शिता को भी इंगित करके उससे बचने का संकेत किया है। लेकिन आज तो विभिन्न टी वी चेनलों के माध्यम से अंध विश्वास व पाखंड को और अधिक बढ़ावा दिया जा रहा है। 'दुश्मन' के शिक्षाप्रद संदेश को मनोरंजन की आड़ में उपेक्षित कर दिया गया है। परिणामतः जनता का शोषण और उत्पीड़न और भी भयावह रूप में आज उपस्थित है। 

व्यापार जगत के बढ़ते राजनीतिक आधार का खेत और किसानी पर प्रभाव :

'दुश्मन' का निर्माण काल लगभग 1970 का होगा जबकि 1969 में 'सिंडीकेट' और 'इंडिकेट' के रूप में केंद्र के सत्तारूढ़ दल में विभाजन हो चुका था। 1967 के आम चुनावों में उत्तर भारत के प्रदेशों से कांग्रेस राज का सफाया हो चुका था। व्यापारी और पूंजीपति वर्ग 'समाजवादी नमूने के समाज' सिद्धान्त को धुंधला देना चाहता था। वह अपनी अवैध कमाई को गांवों में खेत खरीद कर और फार्म हाउसों में परिवर्तित करके वैध रूप से आय कर बचाने के उपाय कर रहा था। कुलक-सूरज और उसके साथियों का चाल-चरित्र इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जिसने सुरजीत के प्रयासों से गाँव के लहलहाते खेतों में फसल काटने से पहले ही आग लगवा दी। क्योंकि सुरजीत  के प्रयासों से गाँव वालों को अपनी-अपनी  ज़मीन का मालिकाना हक वापिस शासन द्वारा मिल चुका था। गाँव का किसान अपने पैरों पर न खड़ा हो सके इसलिए उसकी फसल को फूँक कर कमर तोड़ डाली गई थी। 

ठीक ऐसा ही एक प्रसंग इससे पूर्व की 'सुधारात्मक दंड' वाली फिल्म 'दो आँखें बारह हाथ' में भी आया था । व्ही शांताराम द्वारा निर्देशित इस फिल्म में  जेलर के सद्प्रयासों  से कैदियों द्वारा बंजर ज़मीन को उपजाऊ बना कर तैयार फसलों को भी मंडी के शोषक व्यापारियों द्वारा जलवा दिया गया था।

आज़ादी के तुरंत बाद भी और 22-23 वर्षों बाद भी किसानों की समस्याएँ ज्यों की त्यों थीं और आज से 22-23 वर्ष पूर्व शुरू हुई उदरवाद/नव उदारवाद अर्थ व्यवस्था ने तो किसानों को आत्म-हत्या तक को मजबूर किया है। 'दुश्मन' में लापरवाही/नादानी में बने अपराधी सुरजीत को सुधारात्मक दंड ने एक समाज सुधारक के रूप में परिवर्तित कर दिया है । वह मालती द्वारा फूलमती की ज़िंदगी बचाने के प्रयास में सूरज द्वारा घिर जाने पर गोदाम का फाटक ट्रक से तोड़ कर वहाँ पहुंचता है और अपनी माँ समान भाभी -मालती की इज्ज़त पर हाथ डालने की कोशिश के लिए उसे समाप्त कर देना चाहता है तब मालती द्वारा उसे देवर जी संबोधित करके माफ कर दिया जाता है। इसी कारण अदालत द्वारा  बाकी सजा माफ करके उसे छोड़ देने पर वह अदालत से वहीं रहने की स्वतन्त्रता प्राप्त कर लेता है जहां के ग्रामीण उसके लिए पलक-पांवड़े बिछा कर उसका स्वागत करते हैं। अनाथ हो चुकी फूलमती को अपना कर वह पुनः गाँव को खुश हाल बनाने के काम में जुट जाता है। 

जो 'दुश्मन' के रूप में आया था वही गाँव वालों का भरोसेमंद 'दोस्त' बन गया यही वजह 'दोस्ती दिवस ' पर 'दुश्मन ' देखने की थी।




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