रविवार, 13 जुलाई 2014

आर्यसमाज से संपर्क और व्यक्तिगत अनुभव ---विजय राजबली माथुर

माँ जी व बाबूजी साहब,1999 में आगरा में हवन करते हुये

वैसे आर्यसमाज का  विधिवत सदस्यता फार्म तो 13 जूलाई 1997 को ही भरा था और उस समय पूनम पटना गई हुई थीं। परंतु जून 1994 में आर्यसमाज से प्रथम संपर्क तब हुआ था जब शालिनी के निधन के बाद हवन कराने पुरोहित जी आए थे। अजय ने बलकेश्वर कमलानगर आर्यसमाज में संपर्क किया था।  फिर जून 1995 में बाबूजी के निधन के बाद अजय ने पुनः वहाँ संपर्क किया था किन्तु इस बार इंटर कालेज के अध्यापक जो शास्त्री जी आए थे वह अजय को अपने घर का पता दे गए थे। अतः 12 दिन बाद माँ का निधन होने पर अजय सीधे ही शास्त्री जी के घर संपर्क करने गए थे। चूंकि मै और यशवन्त ही अब आगरा में रह गए थे अतः यह शास्त्री जी यदा-कदा यों ही हाल लेने आते रहते थे। 

बाबूजी ने बाबूजी साहब (पूनम के पिताजी ऊपर चित्र में हवन करते हुये) से पत्र-व्यवहार चला रखा था और माँ व बाबूजी ने पूनम को पसंद किया था अतः उनके बाद मुझे खुद  ही यह पत्र-व्यवहार चालू रखना पड़ा क्योंकि भाई-बहन दोनों छोटे हैं और उन दोनों में मतभेद भी थे। पूनम से विवाह के बाद उनके भाई साहब-भाभी जी के सामने भी वह शास्त्री जी आए थे और सबको शामिल करते हुये हवन करवा गए थे। पोंगापंथी-आडंबरयुक्त पाखंडी प्रक्रियाओं के विरुद्ध होने के कारण मैंने शास्त्री जी के अनुरोध पर बगैर सदस्यता लिए हुये ही आर्यसमाज में जाना शुरू कर दिया था। विधिवत सदस्यता लेने के बाद मैं सक्रिय रूप से भाग लेने लगा था और मुझे कार्यकारिणी में भी शामिल कर लिया गया था लेकिन बाद में मैं कार्यकारिणी से हट गया था।

उपरोक्त चित्र में हवन करा रहे पुरोहित जी भी शास्त्री जी के माध्यम से यदा-कदा वैसे ही मिलने आते रहते थे। सन 1999 में जब माँ जी व बाबूजी साहब आगरा आए थे तब उनकी उपस्थिती में हमने पुरोहित जी से हवन करवाया था। जूलाई 2000 में बाबूजी साहब के निधन के बाद जब भाई साहब पूनम को आगरा पहुंचाने आए थे तब उपरोक्त चित्र वाले पुरोहित जी उनके सामने आए थे और अपने साथ पेठा-मिठाई लाये थे (जबकि हमेशा तो यों ही आते थे) भाई साहब से बात करते हुये पुरोहित जी बोले हमको तो उनके न रहने की खुशी है। जो पुरोहित उनसे मिल चुके थे उनको हवन करा चुके थे उनके मुख से ऐसे शब्द सुन कर हैरानी भी हुई और धीरे-धीरे मैंने गतिविधियों में भाग लेना बंद कर दिया और सदस्यता से भी अलग हो गया। किन्तु शास्त्री जी फिर भी घर पर व्यक्तिगत रूप से मिलने आते रहे। उनसे ही पता चला था कि उपरोक्त पुरोहित जी जयपुर हाउस के पुरोहित जी को हटाये जाने पर उनके स्थान पर वहाँ चले गए थे और कमलानगर छोड़ दिया था। उसके बाद वहाँ से नोयडा चले गए और आगरा ही छोड़ दिया। स्वभाविक रूप से   पुरोहित जी अधिक वेतन वाले स्थान पर जाते रहे । धन-लोलुप और RSS से प्रभावित लोगों के कारण आज आर्यसमाज स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' के सिद्धांतों से हटा हुआ प्रतीत होता है। 17 वर्षों बाद आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूँ कि 'मस्तिष्क' के परिष्कृत होने तथा भ्रम निवारण में आर्यसमाज का अमिट योगदान है किन्तु अधिकांश लोग व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण 'कथनी व करनी' में अंतर कर रहे हैं।एक प्रधान जी जो रेलवे में कार्यरत थे और कमलेश बाबू के बालसखा-कुक्कू के छोटे भाई के साथी थे मेरे विरुद्ध षड्यंत्र में रहते थे जिसका खुलासा शास्त्री जी की मार्फत हो गया था।  मेरे लिए ऐसा करना संभव नहीं है इसलिए मैं संगठन से दूर हूँ फिर भी सिद्धांतों पर यथा-संभव चलने का प्रयास करता रहता हूँ।

13 जूलाई 2013 को हमारी पार्टी के एक प्रदेश पदाधिकारी( जो कुक्कू के ज़िले-सीतापुर के ही हैं ) ने ज़िला काउंसिल बैठक के दौरान हाथ और पैरों से मुझे ठोकरें मारी थीं भी आर्यसमाज के बिगड़े पुरोहितों की भांति ही 'कथनी-करनी' के अंतर वाले हैं। हालांकि राजनीतिक रूप से मैं पार्टी संगठन में सक्रिय हूँ परंतु उन सीतापुरिए से दूर रहता हूँ।

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