गुरुवार, 26 जून 2014

26 जून :1975 और 1995 ---विजय राजबली माथुर


26 जून 1975 को जब मैं एक साथी  के साथ मेरठ -दिल्ली पेसेंजर से मिंटो ब्रिज पर उतरा और पूर्व की भांति सचिवालय गया तो प्रवेश नहीं करने दिया गया तभी पता चला कि एमर्जेंसी लग गई है। वस्तुतः हम लोग नौकरी की तलाश में परिचितों के पास दिल्ली जाया करते थे वह साथी बेरोजगार हो गए थे और मैं भी सस्पेंशन के कारण बेरोजगारी के कगार पर था। खैर फिर बाज़ार घूमते हुये स्टेशन मेरठ वापसी हेतु चले। 'इंडियन एक्स्प्रेस' ने अपने दफ्तर के बाहर भी काला बैनर लगा रखा था और अखबार भी काले हाशिये में ब्लैंक कवर पेज रखा था। ट्रेन में कुछ तथाकथित पत्रकार और व्यापारी ज़ोर-ज़ोर से बातें कर रहे थे कि जयप्रकाश नारायण और मोरारजी आदि नेताओं ने विदेशों से इंदिरा जी को हटाने की मदद मांगी थी इसलिए अराजकता पर नियंत्रण हेतु एमर्जेंसी लगाई गई है। 

28 जून की रात को मेरठ से पुरानी दिल्ली होते हुये आगरा 29 जून को पहुँच गए क्योंकि एमर्जेंसी के बाद रुकने का कोई औचित्य नहीं था। 

बाद में होटल मुगल,आगरा में पदमाशंकर पांडे (केरल की राज्यपाल श्रीमती शीला दीक्षित की नन्द का देवर) जो पर्सोनेल विभाग में थे ने बताया था कि एमर्जेंसी तो 25 जून की सुबह नौ बजे ही लगनी थी क्योंकि तब केंद्रीय गृहमंत्री रहे शीला जी के श्वसुर उमाशंकर दीक्षित साहब बेचैनी से उत्तर-प्रदेश के राजभवन में चक्कर काट रहे थे और एमर्जेंसी की घोषणा न होने से व्याकुल थे। परंतु घोषणा  बाद में मध्य रात्रि में की गई  । 

बीस वर्ष बाद 26 जून 1995 को माँ का दाह-संस्कार करना पड़ा और उस समय कुछ लोगों ने किस प्रकार अड़ंगा लगाया उसका विवरण इस पोस्ट द्वारा पूर्व-प्रकाशित है:

"ट्रक चलने से पूर्व ही कामरेड एस कुमार और कामरेड अनंत राम राठौर भी आ गए थे ,वे भी साथ चले। फिर शर्मा जी ने हमारे दूसरे साईड वाले सिन्धी महोदय को स्कूटर पर यह देखने के लिए भेज दिया कि कालोनी के लोगों को उनके द्वारा रोके जाने से इतने कम लोगों के साथ हम कैसे,क्या करते हैं?पता नहीं कुछ लोग खुद को खुदा क्यों समझने लगते हैं? हम लोग जब घाट पर टाल से लकड़ियाँ ढो रहे थे तब तक कुछ दूसरे लोग दाह संस्कार करके लौट रहे थे। उनके बुजुर्गवार एक सदस्य ने उन युवकों से कहा कि देखो इनके छोटी-छोटे बच्चे भी लगे हुये हैं तुम लोग इनकी मदद करो। फिर तो देखते-देखते आनन-फानन मे हम लोगों की कई क्वितल लकड़ियाँ मौके पर पहुँच गईं। हम उन लोगों को सिर्फ 'धन्यवाद' ही दे सकते थे। कालोनी के पढे-लिखे ,सभ्य ?सुसंस्कृत ?लोगों के व्यवहार और इन अनपढ़ तथा-कथित गवार ,अंनजाने लोगों के व्यवहार का यही तो अंतर था।शर्मा जी तथा दूसरे लोगों को उन सिन्धी महोदय से ज्ञात हो गया होगा कि उन लोगों द्वारा पीछे हटने के बावजूद अजनबी और गरीब लोगों द्वारा किस प्रकार अचानक हमारी सहायता की गई।"
http://vidrohiswar.blogspot.in/2012/04/1994-95-11.html 

26 जून 1975 को ट्रेन में सुनी बातें झूठ का पुलिन्दा थीं और 26 जून 1995 को अड़ंगेबाज़ों का ड्रामा भी झूठ के पहाड़ पर चढ़ कर खेला गया था। आज 39 और 19 वर्ष पुरानी बातों का अचानक ख्याल आया और उनको लिपिबद्ध कर लिया है। 

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