गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

बाबूजी का स्मृति चित्रण ---विजय राजबली माथुर

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

रावण वध एक पूर्वनिर्धारित योजना.- (पुनर्प्रकाशन)



(यों तो हमारे पिताजी का जन्मदिन 04 सितंबर 1920  माना गया है और उसी के आधार पर 30 सितंबर 1978 को उनका रिटायरमेंट भी हुआ था। किन्तु पुराने कागजों मे उनकी एक जन्मपत्री मिली जिसके अनुसार उनका जन्म 24 अक्तूबर 1919  को हुआ था। अतः इस लेख का पुनर्प्रकाशन मैं अपने पिताजी स्व.ताज राज बली माथुर साहब को उनके जन्मदिन पर श्रद्धा पूर्वक समर्पित करता हूँ। )



गत वर्ष 'क्रांतिस्वर' ब्लाग में उपरोक्त उल्लेख के साथ बाबूजी के जन्मदिन पर पहली बार स्मरण किया था। आज यदि वह होते तो आज ही दिवंगत हुये मन्ना डे जी के समान 94 वर्ष की आयु को प्राप्त हुये होते परंतु उनको इस संसार से कूच किए हुये लगभग साढ़े 18 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं किन्तु उनकी स्मृति तो जीवन पर्यंत अक्षुण  रहेगी।

बाबूजी के आज के जन्मदिन की पूर्व वेला में कल दिनांक 23 अक्तूबर 2013 को दो ऐसे फेसबुक मित्रों से भेंट का सौभाग्य प्राप्त हुआ जिन्होने अपने-अपने तरीके से मुझे प्रोत्साहित व सम्मानित किया। हालांकि फेसबुक पर ही फेसबुक मित्रों के संबंध में अनेकानेक लोग विपरीत टिप्पणियाँ करते हैं परंतु मुझको अभी तक मिल चुके तमाम फेसबुक मित्रों में से फेसबुक मित्र डॉ डंडा लखनवी जी के बाद इन दोनों में भी  'आत्मीयता' मिली।  

दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में प्रतिष्ठित एवं सम्मानित हैं। दोनों के द्वारा मेरा मान किए जाने का कारण मेरा लेखन है। एक तो सुप्रसिद्ध महान लेखक हैं जिन्होने अपनी प्रकाशित दो पुस्तकें मुझे ससम्मान/सस्नेह भेंट कीं; दूसरे ने मेरे एक ब्लाग को भविष्य हेतु आज की सामयिक आवश्यकता बताया। मैं उन दोनों का हृदय से ऋणी हूँ। 

लेकिन आज मेरे लेखन को जो मान्यता या सराहना मिल रही है उसका सम्पूर्ण श्रेय श्रद्धेय बाबूजी का है। जब मैं 7-9 वर्ष की आयु में डी पी निगम गर्ल्स जूनियर हाईस्कूल,लखनऊ में कक्षा 3-4 का छात्र था तब हमारे बाबूजी मेरे लिए प्रत्येक रविवार को 'स्वतंत्र भारत' की एक प्रति ले देते थे जिस पर हमारे फुफेरे भाइयों (जिनमें से एक पूना में सेटिल हैं तो दूसरे डेढ़ किलो मीटर की दूरी पर रहते व मुझे तुच्छ समझते हैं) को एतराज होता था। वे भुआ-फूफाजी से शिकायत करते थे कि मामाजी बेकार विजय के लिए इतना खर्चा करते हैं वह क्या समझता होगा?मुझे खुद अब कुछ याद नहीं है कि उस समय वाकई मैं अखबार पढ़ कर क्या समझता था?परंतु हमारे बाबूजी कुछ तो समझते होंगे जो मेरे लिए खुद-ब-खुद पहल कर के अखबार लेने लगे थे और उस पर माँ को भी कभी कोई आपत्ति नहीं हुई थी। 1961-62  में बरेली में कक्षा 4-5 में मुझे बाबूजी अपने दफ्तर की स्टाफ क्लब से 'धर्मयुग','साप्ताहिक हिंदुस्तान',कुछ उपन्यास (जिनमें स्वाधीनता आंदोलन के कुछ क्रांतिकारी आंदोलन पर भी आधारित थे) भी पढ़ने को ला देते थे। उस पर भी माँ की तरफ से न  कोई आपत्ति थी न  ही पढ़ने से माँ ने रोका। 

1969-71 के दौरान इंटर और बी ए की पढ़ाई के समय बाबू जी अपने आफिस की लाइब्रेरी से दैनिक 'नवभारत टाईम्स' और 'हिंदुस्तान' के विगत दिवस के अंक ला देते थे जिनको अगले दिन सुबह वापिस ले जाना होता था। इनके साथ-साथ 'धर्मयुग','हिंदुस्तान','सरिता','सारिका' और कुछ उपन्यास भी लाते थे जिनको 7 दिन में पढ़ कर वापिस करना होता था। मेरठ कालेज,मेरठ में बीच के खाली पीरियड्स में मैं लाइब्रेरी के एक अलग-थलग कोने में बैठ कर जिन पुस्तकों को पढ़ता था उनमें कुछ के नाम आज भी याद हैं-काका कालेकर साहब की गांधी जी पर पुस्तक,'हिन्दी के साहित्य सेवी' आदि। स्वामी दयानन्द 'सरस्वती' के प्रवचनों का संकलन-'धर्म और विज्ञान' पुस्तक काफी मोटी  और भारी थी कई माह में उसका अध्यन पूर्ण हो पाया था। लाइब्रेरियन साहब ने अपनी कुर्सी के नीचे उस पुस्तक को रख छोड़ा था क्योंकि उनको मालूम था कि पूरा पढे बगैर मैं रहूँगा नहीं तो रोज़-रोज़ आलमारी में रखने का झंझट वह क्यों करें?'मेरठ कालेज पत्रिका' में मेरा पहला लेख-'रावण -वध एक पूर्व निर्धारित योजना' 1970-71 के अंक में छ्पा था जिसका संशोधित और विस्तारित रूप आगरा में 'सप्तदिवा साप्ताहिक' में दो किश्तों में  1982 में प्रकाशित हुआ था जिसे 'क्रांतिस्वर' ब्लाग में 2010 में चार किश्तों मे दिया गया था। गत वर्ष 2012 में आज ही के दिन बाबूजी के जन्मदिन पर उसे पुनर्प्रकाशित किया था। इस लेख पर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के डायरेक्टर माननीय डॉ सुधाकर अदीब साहब ने जो टिप्पणी दी है वह मेरे लिए 'अमूल्य निधि' है। 

आज का मेरा लेखन और उसकी विद्वजनों द्वारा मान्यता हमारे बाबूजी के ही प्रयासों व आशीर्वाद का फल है। प्रस्तुत वर्णन हमारे पूरे परिवार की ओर से  बाबूजी को श्रद्धा सुमन/नमन  के रूप में अर्पित है।         

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