गुरुवार, 16 मई 2013

बरेली के दौरान (भाग-2 )---विजय राजबली माथुर

बरेली के दौरान 
क्योंकि बरेली मे बहुत कम समय ही रहे थे अतः 10 सितंबर 2010 को लिखते समय बहुत सी बातें छूट गईं थीं किन्तु अभी भी स्मरण हैं अतः उनको भी सार्वजनिक किया जाना अब समीचीन लगा है।

जब तक बाबूजी ने बरेली में किराये पर घर लिया तब तक के लिए हम लोग शाहजहाँपुर -नानाजी के पास चले गए थे। उस समय तक नानाजी का दक्षिण मुखी घर सामने ऊंचा था तथा पीछे उत्तर की ओर रेलवे लाईन की तरफ नीचा था। नीचे आँगन में तख्त पर ऊपर के चबूतरे से हम लोग छलांग लगा कर खेल रहे थे। बहन सबसे छोटी होने के कारण संभल न सकी और गिर गई उसके सिर में तख्त से चोट लग गई। जब तक वहाँ थे नाना जी अपनी होम्योपेथिक दवाएं देते रहे। गोला बाज़ार में लाला धर्म प्रकाश जी की दुकान के पिछवाड़े हिस्से में उनके घर को किराये पर लेकर बाबूजी लखनऊ से सब सामान और हम लोगों को भी ले गए। बाबू जी का दफ्तर-CWE आफिस सुबह 07-30 से प्रारम्भ होता था। अतः हम दोनों भाई छोटी बहन को केंट जनरल अस्पताल ले जाकर मरहम-पट्टी करवा लाते थे।

शुरू में दोनों भाई रूक्स प्राईमारी स्कूल में थे और बहन का स्कूल हम लोगों से आगे और थोड़ी दूर पर था। उसके स्कूल की प्राचार्या क्रिश्चियन थीं जिनके दो पुत्र हमारे स्कूल में एक मेरे साथ और दूसरा भाई के साथ पढ़ते थे। बहन की एक अध्यापिका हमारे घर चौका-बर्तन करने वाली 'मेहरी'साहिबा की पुत्री थीं। उनकी शादी में हम दोनों भाई भी बाबूजी के साथ बारात में शामिल होकर गए थे। बउआ ने यह बात जब मेहरी साहिबा को बताई थी तो वह बहुत खुश हुईं थीं।

लखनऊ से जब बाबू जी अकेले आए थे तो अपने दफ्तर के कुछ साथियों के साथ बी आई बाज़ार में उन लोगों के साथ कमरे पर रहे थे। उनमे एक थे 'बाला प्रसाद'जी जिनसे बाबूजी की घनिष्ठता हो गई थी। उनके परामर्श पर ही बाबूजी उनके कमरे के सामने वाले दुकानदार 'धर्म दास' जी से सामान खरीदने बी आई बाज़ार जाते थे हम दोनों भाईयों को भी ले जाते थे। मकान मालिक 'धर्म प्रकाश' जी की दुकान से छिट -पुट चीज़ें ही कभी-कभी लेते थे। इन बाला प्रसाद जी के एक माने हुये पुत्र से ही जो इंजीनियर हो गए थे  मेहरी साहिबा की शिक्षिका पुत्री का विवाह हुआ था। क्योंकि बाबूजी के दफ्तर के साथियों को यह आश्चर्य हुआ था कि खुद 'तेली'समुदाय से होते हुये अपने दत्तक पुत्र का विवाह वह 'कहार' समुदाय की पुत्री से क्यों कर रहे हैं?अतः बाला प्रसाद जी को इस छिपे रहे रहस्य को उजागर करना पड़ा था कि उनके घर के वफादार सेवक ने  जिनकी पत्नी की मृत्यु पहले हो चुकी थी अपना अन्त समय जान कर अपने 10 वर्षीय पुत्र का हाथ  उनको पकड़ा कर उनसे वचन लिया था कि उसे अपने पुत्र के समान ही मानते हुये उसका लालन-पालन करेंगे। उन्होने अपनी जमा-पूंजी की पोटली भी बाला प्रसाद जी को सौंप दी थी  जिसे बाला प्रसाद जी ने इस शादी के वक्त उस पुत्र को सौंप दिया था। जैसा कि बाला प्रसाद जी ने अपने साथियों को बताया था इस पुत्र की शादी का खर्च उन्होने खुद किया था। हालांकि उस वक्त वह बरेली से ट्रांसफर हो चुके थे किन्तु जब बारात लेकर बरेली आना था तब अपने आफिस और कमरे के पास के मोहल्ले के साथियों को पूर्व में कार्ड भेज कर निमंत्रित किया था। बारात गोला बाज़ार के पास से चली थी और उसमें बैंड-बाजे का भी बंदोबस्त था। लड़की वालों के घर के पास एक खाली मैदान में बाकायदा बेंच-मेज़ पर खाने का प्रबंध 'पत्तल-शकोरे' में था। खाना अच्छा था। लड़की वालों की आर्थिक स्थिति को देखते हुये बाला प्रसाद जी ने खाने का खर्च खुद उठाया था। आजकल जब अखबारों मे पढ़ते हैं कि किस प्रकार लोग लड़की वालों का शोषण उनको दबा कर करते हैं तब 'बाला प्रसाद' जी का आचरण स्मरण हो जाता है। वह भी तब जबकि वह उनका पाला-माना पुत्र था।

यह भी याद है कि हमारे क्लास का एक छात्र रामलीला में पटाबाजी का खेल करता चलता था। गंगा-पार उतारने का दृश्य धोंपेश्वर महादेव मंदिर के तालाब में 'नाव' पर सम्पन्न किया जाता था। एक वर्ष लक्ष्मण की भूमिका वाले पात्र की लंबाई राम के पात्र से अधिक थी। वहाँ राम बारात और नाव उतरने के कार्यक्रम ही हम लोगों ने देखे थे,राम लीला तो काफी रात में नौटंकी के रूप मे होती थी। सावन के सोमवारों पर वहाँ उस मंदिर पर मेला लगता था।

बबूए मामाजी (बउआ के चचेरे भाई)उस वक्त हास्टल में रह कर सिविल इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे। कुछ त्यौहारों पर जब वह शाहजहाँपुर नहीं जाते थे बउआ ने उनको घर बुलाकर खाना खिलाया था। वैसे मिलने आने पर वह खाना नहीं खाते थे कि मेस में तो खर्चा कटेगा ही। नाना जी के फुफेरे भाई -महेश नाना जी,इंस्पेक्टर आफ फेकटरीज़  सिविल लाईन्स मे रहते थे उनके घर भी मिलने जाना होता रहता था। पहली बार पहुंचाने महेश नानाजी हम सबको अपनी कार से आए थे। बाबूजी की साईकिल को नानी जी की दही मथने की रस्सी से कार की छत पर बांध दिया था। खाना उन्होने खिला कर भेजा था हमारे घर हैंड पंप का पानी ही उन्होने व मौसियों ने पिया क्योंकि रात को तब नाश्ते का समय नहीं था।

छ्ठे क्लास मे मैं 'रूक्स हायर सेकेन्डरी स्कूल' (जो अब रवीन्द्र नाथ टैगोर इण्टर कालेज हो गया है)में था जब डॉ राधा कृष्णन जी का राष्ट्रपति के रूप में प्रथम जन्मदिवस पड़ा जिसे पंडित नेहरू ने शिक्षक दिवस घोषित कर दिया था। स्कूल में छुट्टी तो घोषित कर दी गई किन्तु हमारे कक्षाध्यापक दीना नाथ जी हमारी कक्षा से मुझे व पड़ौस के ही एक दूसरे सहपाठी को तथा अन्य कक्षाओं से दूसरे छात्रों को लेकर बाज़ारों में 'शिक्षक दिवस' का चन्दा लेने ले गए। एक छोटा फ्लेग वह लोगों को देकर सील्ड डिब्बे में धन एकत्र कर रहे थे। बाबूजी भी घर आ चुके थे छुट्टी के बाद तब तक मेरे न  लौटने से चिंतित होकर गोला बाज़ार में खड़े थे और दूसरे छात्र के पिताजी भी वहीं उसका इंतज़ार कर रहे थे। दीना नाथ जी ने सब छात्रों को उनके घर पहुंचाने के बाद हम लोगों को पहुंचाया था और दोनों के पिताओं को आश्वस्त किया था कि वह अपने साथ ले गए थे।

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