बुधवार, 5 सितंबर 2012

स्मृति पटल पर शिक्षक (भाग-2 )

बाजपेयी जी


आज शिक्षक दिवस पर सबसे पहले 'विश्वनाथ जूनियर हाईस्कूल ',तलउआ,बहादुरगंज,शाहजहाँपुर के अपने सेकेंड हेड मास्टर साहब-अचल बिहारी बाजपेयी जी का ज़िक्र करना चाहूँगा। 1962 मे चीन के आक्रमण के वक्त बाबूजी ट्रांसफर पर सिलीगुड़ी मे थे और हम लोग नाना जी के पास। नवंबर मे दाखिला किसी स्कूल मे नहीं मिला तो नानाजी अपने पुराने परिचित इस स्कूल स्थापक के छोटे भाई से मिले जिनके कारण दाखिला हो गया था। 6ठा क्लास आधा रूक्स हायर सेकेन्डरी स्कूल ,बरेली से और फाइनल यहाँ से किया था। सेकेंड हेड मास्टर बाजपेयी जी हिन्दी पढ़ाते थे। कभी-कभी कवितायें सबको याद है अथवा नहीं चेक करने हेतु क्लास मे अंताक्षरी करा देते थे। जिस तरफ मेरी सीट मुकर्रर थी उधर और भी कई लड़के याद रखते थे। अतः अंताक्षरी हेतु उस पीरियड मे बाजपेयी जी संतुलन बनाने हेतु मुझे दूसरे पक्ष मे बैठा देते थे। एक बार अकेले मेरे ही  दम पर वह हारने वाला पक्ष मेरे अपने असली पक्ष से जीत गया था। तब से स्कूल छोडने तक बाजपेयी जी मुझे विशेष महत्व देते रहे। बिलकुल नया होने के बावजूद उन्होने गवर्नमेंट स्कूल मे होने वाले ज़िला वाद-विवाद प्रतियोगिता मे 'पक्ष' मे बोलने हेतु मेरा चयन किया । मुझे तथा विपक्ष मे बोलने वाले को रिक्शा पर लेकर गए थे। 5 मिनट की जगह मैं ढाई मिनट मे बोल गया। लौटते मे वह बोले कोई बात नहीं अगली बार फिर तुमसे ही बुलवाएंगे। और सच मे 1963- 64 की ज़िला वाद-विवाद प्रतियोगिता मे उन्होने मुझे ही पक्ष मे बुलवाया। इस बार मैं साढ़े चार मिनट मे बोल गया। बोल कर सीट पर आते वक्त उन्होने मुझसे धीरे से कहा 'शाबाश' और जब परिणाम घोषित हुआ तो मुझे 'कामायनी' प्रथम पुरस्कार के रूप मे प्राप्त हुई शील्ड एक माह मेरे घर रह कर स्कूल मे रही।
यह तो बाजपेयी जी का वायदा निभाने की बात थी। नहीं तो किसी और छात्र को भी मौका दे सकते थे। उससे भी बड़ी एक और बात उनकी है कि वह अक्सर अचानक 'टेस्ट' लिया करते थे और 7 वी कक्षा मे एक ऐसे ही अचानक के टेस्ट मे 'संस्कृत' मे मुझे कोई अंक नहीं मिला। उन्होने मुझसे कहा तुम्हारे नाना जी से शिकायत करेंगे। नाना जी बाज़ार वगैरह मे हमारे स्कूल के अध्यापकों को देख कर उनको नमस्ते करने के अलावा हम दोनों भाइयों की रिपोर्ट भी पूछते थे कि, कैसा पढ़ रहे हैं?आचरण कैसा है?उसके बाद मिलने पर बाजपेयी जी ने नाना जी से कहा ज़रा 'संस्कृत' पर ज़ोर दीजिये बाकी सब मे यह ठीक है। नाना जी ने उनसे कहा मास्टर साहब हम तो उर्दू,फारसी,अङ्ग्रेज़ी ही पढे हैं कृपया आप ही ध्यान दे लीजिये। आज का युग होता तो वह कहते 'ट्यूशन' लगवाइए। लेकिन उन्होने क्लास मे मुझ पर शिकंजा कस लिया और इस तुर्रे के साथ कि तुम्हारे नाना जी ने हमे अधिकार दे दिया है। यदि उनका दिया टास्क उनके पीरियड मे मैं पूरा जब नहीं कर पाता था तो वह मुझे किताब-कापी समेत अपने दूसरे क्लास मे ले चलते थे और मेरा अगला विषय छूट जाता था। फिर उन्होने ही कुछ सूत्र दिये जिनके बल पर मैं संस्कृत समझ सका और आज बिना संस्कृत पढे ही आज प्रोफेशन मे  'स्तुति' पाठ आराम से कर लेता हूँ।

1964 मे हम लोग भी बाबूजी के पास सिलीगुड़ी आ गए थे। वहाँ 'कृष्ण माया मेमोरियल हाई स्कूल ',आश्रम पाड़ा मे हमने मिड सेशन मे दाखिला लिया था। सभी अध्यापक बहुत अच्छे थे हेड मास्टर साहब अदिवतीय। 
डाक्टर के.एन.ओझा--हमारे हेड मास्टर साः भी द्वितीय विश्व युद्ध में सेना में रहे थे-वारेंट औफिसर के रूप में.उन्होंने बताया था उनके बैच में २० लोग भर्ती हुए थे १९ मारे गए.वह आगरा में C O D में तैनात रहे इसीलिए बच गए थे.निराला की ''वर दे वीणा वादिनी वर दे'' कड़क आवाज़ में सस्वर पाठ उनके ओज को दर्शाता था.पहले दिन कोई छात्र उनकी कसौटी पर खरा नहीं उतरा.दुसरे दिन मेरे साथ एक अन्य को उन्होंने पास किया.तीसरे दिन 3 को.६० छात्रों के बीच सिर्फ हम ५ छात्र ही निराला की कविता के लिए उपयुक्त पाए गये.डाक्टर ओझा ने कई पुस्तकें भी लिखीं थी;जब हम लोगों के स्कूल में लाइब्रेरी का प्रबंध हो गया तो उन्होंने कुछ पुस्तकें भेंट कर दीं.

1967 मे हम लोग एक बार फिर शाहजहाँपुर मे पढे थे ,विलंब से आने के कारण दाखिले मे फिर दिक्कत थी । गांधी फैजाम कालेज के प्राचार्य चौधरी वसी मोहम्मद साहब ने इंटर फर्स्ट ईयर मे मेरे मन मुताबिक विषयों मे दाखिला दे दिया । यहाँ सभी अध्यापक बहुत अच्छे थे सिर्फ कुछ की चर्चा कर रहा हूँ। 
  हमारे जी .ऍफ़ .कालेज में बी .ए .के साथ इंटर की पढ़ाई उस समय होती थी (अब वह केवल डिग्री कालेज है और इंटर सेक्शन इस्लामिया कालेज में चला गया है ).उ .प्र .में चौ .चरण सिंह की संविद सरकार ने अंगरेजी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया था .लखनऊ से भुआ ने मुझे पत्र लिखा था कि ,"यह सरकार बच्चों को कुबड़डा बनाने पर तुली है ,तुम अंगरेजी जरूर लेना ".मै अंगरेजी में कमजोर था और नहीं लेना चाहता था .तब तक कालेज में सर्कुलर का इन्तजार था ,मैंने किताब नहीं खरीदी थी .किताब की शाहजहांपुर में किल्लत भी थी .प्रो .मोहिनी मोहन सक्सेना ने बरेली से मगाने  का प्रबंध किया था  ;समय बीतने के बाद उन्होंने सब की किताबें चेक करने को कहा था .मैंने उन्ही के रिश्तेदार जो वहां टी .ओ .थे के पुत्र जो मेरे क्लास में था से पुस्तक लेकर सारी रात टेबल लैम्प जला कर कापी में नक़ल उतार ली और अगले दिन कालेज ले गया .जब प्रो .सक्सेना ने मुझ से किताब दिखाने को कहा तो मैंने वही नक़ल दिखा दी .बोले ऐसा क्यों ?मैंने  जवाब दिया चूंकि मुझे अंग्रेजी छोड़ना है ,इसलिए किताब नहीं खरीदी -आपको दिखाना था इसलिए गिरिधर गोपाल की किताब से नक़ल बना ली है .प्रो .साहब इस बात से बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि जब तुमने अग्रेजी के लिए इतनी मेहनत की है तो मेरी ख़ुशी के लिए तुम अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल के रूप में जरूर लेना ,जिस से मेरा -तुम्हारा संपर्क बना रहे .इस प्रकार मैंने अंगरेजी को एडिशनल आप्शनल ले लिया .प्रो . सक्सेना बहुत अच्छी तरह पढ़ाते थे ,उनसे क्लास में संपर्क बनाये रखने में ख़ुशी ही हुई .

अंगरेजी के एक चैप्टर में पढ़ाते हुए प्रो . सक्सेना ने बड़े मार्मिक ढंग से कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी के लेख को समझाया जिसमे उन्होंने (तब वह भारत के शिक्क्षा मंत्र्री थे )ब्रिटिश कौसिल इन इंडिया का उद्घाटन करते हुए कहा था ---यहाँ मै एक साहित्यकार की हैसियत से आया हूँ ,एक राजनीतिग्य की हैसियत से नहीं क्योंकि यदि एक

राजनीतिग्य कहता है ---हाँ तो समझो शायद ,और यदि वह कहे शायद तो समझो नहीं और नहीं तो वह कहता ही नहीं .


हमारे इतिहास के प्रो .माशूक अली साहब नगर पालिका के चेयरमैन रहे छोटे खां सा .के परिवार से थे .उनका लकड़ी का व्यवसाय था वह तब केवल -रिक्शा और कालेज में खाए पान का खर्च मात्र १५० रु .आन्रेरियम लेते थे .हमारे नानाजी के एक भाई स्व .हरीश चन्द्र माथुर के वह सहपाठी रहे थे .जब उन्हें यह बताया तो बहुत खुश हुए और यदा -कदा मुझसे कहते थे अपने नानाजी को मेरा सलाम कह देना .इसी प्रकार बम्बई वाले नानाजी (नानाजी के वह भाई बम्बई में सर्विस काल में रहे थे)भी प्रो .सा .को अपना आदाब कहलाते थे .

 नागरिक -शास्त्र के प्रो .आर .के .इस्लाम सा .तथा अर्थ शास्त्र के प्रो .सा .(नाम अब याद नहीं है )भी अच्छा पढ़ाते थे ,इन दोनों का चयन अलीगढ मुस्लिम यूंनिवर्सिटी  में हो गया था .

इस्लाम सा .ने सर सैय्यद अहमद खां के बारे में बताते हुए उनके पुत्र सैय्यद महमूद जो बड़े वकील थे ,कभी केस हारे नहीं थे का उल्लेख किया था जो बहुत दिलचस्प है .:- पंजाब के किसी राज -परिवार के सदस्य को फांसी की सजा हो गयी थी उसे बचाने के लिए उन्हें महमूद सा . का नाम सुझाया गया था .जब वे लोग उनके पास पहुंचे तब उनके पीने का दौर चल रहा था और ऐसे में वह किसी से मिलते नहीं थे .बड़ी अनुनय -विनय करने पर उन्होंने सिख राज-परिवार के लोगों को बुलाया तथा काफी फटकार लगाई कि अब उनके पास क्यों आये ,अपने वकील से जाकर लड़ें जो अपील भी हार गया ,अब तो फांसी लगने दो .बड़ी खुशामद किये जाने पर उन्होंने कहा उनका कहा सब मानना होगा ,किसी के बहकावे में नहीं आना होगा .जब उनकी सभी शर्तें मान ली गयीं तब उन्होंने जिन्दगी बचाने की गारंटी दी और कोई अपील या केस नहीं किया .


फांसी का दिन आ गया ,घबराए परिवारीजनो से उन्होंने जेल पहुचने को कहा .खुद एन वक्त पर पहुंचे .फांसी का फंदा भी पड़ गया ,रोते लोगों को उन्होंने कहा उसे कुछ नहीं होगा ,इतने में  फंदा खींचने का हुक्म हो गया .फंदा खींच दिया गया उसी क्षण महमूद सा .ने तेज गुप्ती से फांसी का रस्सा काट दिया ,रस्सा गले में पड़ा -२ वह मुलजिम गढ़े में जिन्दा गिर गया .उसे उठाया गया लेकिन महमूद सा . ने कहा एक बार "हैंग "हो चुका दोबारा हैंग नहीं किया जा सकता .महमूद सा . के खिलाफ सरकारी काम में बाधा डालने का मुकदमा चला जिसे वह जीत गए उन्होंने सिद्ध किया कि वकील के नाते उनका काम मवक्किल को बचाना था उन्होंने बचा लिया .सरकारी काम में बाधा नहीं डाली क्योकि फांसी का फदा बाकायदा खींचा गया था .उन्होंने जजमेंट में खामी बताई कि टिळ डेथ नहीं लिखा था इसलिए दोबारा फांसी पर नहीं चढ़ाया जा सकता .वह यह मुकदमा भी जीते.लेकिन उसके बाद से फैसलों में लिखा जाने लगा -"हेंग टिळ डेथ ".इस वाकये ने न्याय  प्रणाली को बदल दिया था जो कि महमूद सा . के दिमाग का खेल था .

मैंने इस श्रंखला मे जिन शिक्षकों का उल्लेख किया है वे सभी कोर्स से हट कर काफी ज्ञानवर्द्धक बातें बताया करते थे जो आज तक व्यावहारिक जीवन मे काम आ रही हैं और उनके बल पर एक से बढ़ कर एक दिग्गजों के हमलों को मैं ध्वस्त करने मे सफल हो जाता हूँ।  



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