गुरुवार, 17 नवंबर 2011

आगरा /1990-91 (भाग- 7 )

गोविंद बिहारी मौसा जी (बउआ की फुफेरी बहन रानी मौसी के पति) जो कमलेश बाबू के चाचा के मित्र होने के कारण उनके चाचा भी हुये अपनी भतीजी की शादी शरद मोहन,पार्सल बाबू से करवाना चाहते थे। वह और मौसी स्कूटर पर बैठ कर टूंडला भी गए थे। परंतु शरद की माता जी ने उन दोनों को हमारे रिश्ते को ध्यान मे रखते हुये रु 11/-11/-देकर बिदा कर दिया था और शरद की शादी अलवर की काली पप्पी  अर्थात संगीता से कर दी। वह मुझ से तब से विशेष चिढ़ गए थे। उन्होने यह नहीं सोचा कि मै किस हैसियत से उन लोगों को बाध्य कर सकता था। 1990-91 मे आर एस एस की हलचलें तथा जार्ज बुश का तांडव बढ्ने का उनके दिमाग पर पूरा-पूरा असर था। उन्होने मुझे सद्दाम हुसैन कहना शुरू कर दिया था। अतः मैंने भी उनके घर जाना कम कर दिया था।

संगीता ने बाद मे बताया था कि जहां उनकी भतीजी की शादी हुई थी वहाँ से तलाक भी हो गया था। वह लड़का संगीता के पीहर वालों मे था। रानी मौसी की बड़ी भतीजी की एक नन्द की शादी शरद के मौसेरे भाई से हुई थी,उसका भी तलाक हो गया था। गोविंद बिहारी मौसाजी अपनी बड़ी साली को इंदिरा गांधी कह कर मज़ाक उड़ाने लगे थे। जबकि सीता मौसी का व्यवहार तो रानी मौसी से बहौत ज्यादा अच्छा था। इसलिए कई बार दोनों का घर अगल-बगल होते हुये भी केवल सीता मौसी के घर से लौट आते थे और रानी मौसी के घर नहीं जाते थे।

तारीख तो अब ठीक से ध्यान नहीं परंतु इन्हीं दिनों सेठ जी ने भी अपने 'भरतपुर हाउस'मे बने नए मकान का गृह प्रवेश किया था। मुझे सुबह आठ बजे से वहाँ बुला लिया था दूसरे कर्मचारियों के साथ ही। उनकी पूजा समाप्त होने के बाद उनके कहने पर मैंने भी लोगों को प्रशाद के दोने उठा-उठा कर दिये थे। गर्मी का मौसम था। एक ग्लास पानी को भी उनके यहाँ किसी ने नहीं पूंछा। न ही प्रशाद लेने को किसी ने कहा ,वैसे भी मुझे ढ़ोंगी प्रशाद मे दिलचस्पी नहीं थी,उल्लेख तो उनका शिष्टाचार जतलाने हेतु किया है। जब दोपहर  मे भोजन प्रारम्भ हुआ तो मै चुप-चाप घर चला आया,मुझ से तो उन्होने भोजन का न पहले जिक्र किया था न उस दिन जबकि सुबह से बुला लिया था। बाद मे दुकान पर बोले कि,बिना खाना खाये क्यों चले आए? मैंने भी स्पष्ट कह दिया आपने खाने को कब कहा था? दूसरे कर्मचारी कह रहे थे कि खाने को तो उनसे भी नहीं कहा था पर वे खा आए। सबकी बात मै नहीं जानता परंतु मै कभी भी दूसरों के घर खाना-नाश्ता के फेर मे नहीं पड़ता। यदि मुझे विशेष तौर पर कहा जाता है तभी गौर करता हूँ वरना नही।काम की जानकारी होने और मजबूत पकड़ के कारण दुकान पर तो मै अपने हिसाब से काम कर लेता था और उसी समय मे कटौती करके भाकपा की गतिविधियों मे भाग ले लेता था और वह चुप रह जाते थे,परंतु अब घर पर मौका था कि वह अमीरी-गरीबी के भेद को स्पष्ट करते सो उन्होने कर दिखाया।

क्रमशः.....


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