गुरुवार, 22 सितंबर 2011

आगरा/1986-87 (भाग-4)/लखनऊ-कानपुर यात्रा

शायद 27 सितंबर 1987 को मामाजी के सबसे छोटे बेटे शेष की शादी थी। अपने स्वास्थ्य के कारण बउआ का और उनके कारण बाबूजी का जाना संभव न था,भुआ ने हम लोगों को कानपुर आने को कहा था और मै अपनी तरफ से सबसे मेल-जोल व रिश्ता रखना चाहता था/हूँ। अतः 26 ता की रात को अवध एक्स्प्रेस से चल कर 27 को लखनऊ पहुंचा। अब माईंजी न्यू हैदराबाद मे यूनिवर्सिटी बंगले से लौट कर रहने नहीं गईं थी,नई कालोनी रवीन्द्र पल्ली मे थीं। चारबाग से हजरतगंज आकर दूसरे टेम्पो से  रवीन्द्र पल्ली पहुंचे और उनके घर पहुँचने के लिए रिक्शा किया जैसा कि नई कालोनियों मे होता है कोई उनके घर के न . B-2,सविता सदन,गोखले विहार मार्ग की लोकेशन बताने की स्थिति मे न था। माई जी के छोटे भाई हरीश माथुर साहब कहीं से लौट रहे थे मैंने उन्हें पहचान कर आवाज दी -हरीश मामाजी ,देख कर वह पहचान गए और उनके साथ घर पहुँच गए। तब तक सब लोग नाश्ता कर चुके थे और शादी के लिए लिए गए कम्यूनिटी हाल(संस्कार,B-1/15,'E'पार्क ,मंदिर मार्ग,महानगर एक्सटेंशन) चलने की तैयारी मे थे। माई जी ने हम लोगों को नाश्ता देकर कहा तुम्हारा साथ कोई नहीं देगा सब कर चुके हैं। यों अकेले-अकेले गड़पने की आदत हमारी नहीं है,शुगन भर का चख लिया और उल्टे पैरों फिर चलने के लिए तैयार हो गए। वहाँ लोगों को पहुंचा दिया गया था और खाने-पीने का सब सामान घर से सबसे आखीर मे आया ,लिहाजा खाना बेहद देर से बना हलवाई खाली बैठा-बैठा शोर मचाता रहा वह बिना समान के करता क्या?माईजी बोलीं हमने कहा था तुमने वहाँ नाश्ता नहीं किया अब हम यहाँ क्या करें भूखे तो होगे?हम यशवन्त हेतु जो रस्क आदि आगरा से लाये थे वह उसे तथा दूसरे छोटे बच्चों को दे दिये गए और लाया गया सारा स्टाक तत्काल खत्म हो गया। खाना 3-4 बजे तक हुआ।

वहाँ राजन मामाजी , रंजना मौसी ,मंजु मौसी, (तीनों बउआ के छोटे चाचा के बच्चे) कमल मौसी(बउआ  के विश्वनाथ चाचा की बेटी) आदि भी मिले थे। गोपाल मामा जी  (बउआ के फुफेरे भाई) से भी काफी लंबे समय बाद मुलाक़ात हुयी।  शायद यह शेष की लव मैरेज थी ।

वहाँ माईं जी की एक बहन मनोरमा मौसी भी आयीं थी जो तब विधवा हो चुकी थीं और  उनकी आर्थिक स्थिति भी बदल चुकी थी उनके प्रति माईं जी का व्यवहार अब उपेक्षा भरा था। जबकि न्यू हैदराबाद मे 196 0 के लगभग जब वह आयीं थीं तो उनका तथा मौसा जी का मामा जी एवं माईं जी ने गरम जोशी से स्वागत किया था। तब वह मुरादाबाद मे बर्तनों के सफल व्यापारी थे। आर्थिक ,सामाजिक स्थिति बदलते ही पारिवारिक रिश्तों मे यह परिवर्तन लगा तो अटपटा ही परंतु अब सभी जगह ऐसा ही दिख रहा है। जहां माईं जी अपने अमीर रिशतेदारों को अपने प्रबंध से चारबाग से बुला और विदा के समय भेज रहीं थीं वहीं इन मनोरमा मौसी को  आना और जाना अपने माध्यम से रिक्शा द्वारा तय करना पड़ा।

माईं जी के बाद वाली उनकी बहन सरोज मौसी और राजेन्द्र बहादुर मौसा जी की आव-भगत ज्यादा थी। डा आर बी श्रीवास्तव साहब तब सोमैया आर्गेनिक ,बाराबंकी मे उच्च अधिकारी थे। उन्हीं ने बताया था कि,पद्मा शंकर पांडे को विनोद दीक्षित के स्थानांतरित होते ही हटा दिया गया था।

बउआ ने शेष के लिए थ्री पीस सूट भिजवाया था उसका जिक्र माईं जी ने किसी से नहीं किया जबकि उनके पीहर वाले जो लाये थे उनका खूब बखान सब से कर रही थीं। वैसे उनके यहाँ सुबह 09 बजे नाश्ता और दोपहर  एक बजे खाना ,04 बजे चाय,रात 09 बजे खाना समय से चला। सुबह नाश्ते के समय मामा जी के चित्र पर हलवा ,जलेबी आदि माईं जी रखवाती थीं ,अक्सर यशवन्त उनमे से कुछ न कुछ उठा लेता था और खा लेता था। वहाँ भी इस पर किसी को ऐतराज नहीं था और बउआ ने भी इसे उसकी अच्छी आदत ही माना ।

तीसरे दिन दोपहर  मे हम कानपुर भुआ के यहाँ जाने के लिए उनके यहाँ से चल दिये। सुबह का नाश्ता करके चले थे और चारबाग मे पेसेंजर गाड़ी काफी देर से मिली थी। गाड़ी मे भीड़ भी थी। वैसे हमने यशवन्त को प्लेटफार्म पर केले खिला दिये थे और किसी दूसरे से न लेने की उसकी आदत भी घर की परंपरा के अनुसार डाली हुयी थी। एक वृद्ध सज्जन जिनकी पत्नी बुर्का पहने थीं भी कानपुर जा रहे थे। उन्होने हमसे थोड़ी जगह उनके लिए एडजस्ट करने को कहा ,हमने यशवन्त को गोदी मे बैठा लिया और उन दोनों को जगह उपलब्ध करा दी। यशवन्त के यह पूछने पर कि ये कौन हैं,उनकी आयु को देखते हुये उसे बताया कि ये बाबाजी-अम्मा जी हैं। इस बात पर वे लोग खुश हुये। आगे एक जगह उन लोगों ने केले खरीदे तो यशवन्त को भी देने लगे और 04 वर्षीय बच्चे द्वारा लेने से इंकार करने पर उन्हें अटपटा लगा। वह बोले हम तो बाबा जी हैं हमसे क्यों नहीं ले रहे हो तब हम लोगों ने भी उससे लेने को कह दिया तभी उसने उनसे लेकर केला खाया। उन्हें हमने स्पष्ट किया कि यह उनके लिए नहीं कुल मिला कर इस लिए उसकी आदत हमारे माता-पिता ने डाली है कि आज के युग मे सब का भरोसा नहीं किया जा सकता। इस बात से उन्होने भी सहमति जतलायी।

शाम तक भुआ के घर कानपुर पहुंचे। खाना तो रात को ही हुआ। बउआ ने कहा था अगर माईं जी शादी का पकवान भेजें तो भुआ से कहना कि वह थोड़ा उसमे से ले लें ,मुझे अपने हाथ से देने को मना किया था । भुआ ने खुद न निकाल कर मंजु भाभी जी से निकालने को कह दिया जिनहोने सारा का सारा लेकर रख लिया। चलते समय थोड़ा सा भी घर ले जाने को नहीं दिया। बउआ को अपनी नीति के चलते अपने भतीजे की शादी का पकवान न खुद मिला न हम लोगों को चखनेको मिला।

1979 मे एक बार यूनियन के काम से कानपुर गए थे और एक दिन वहाँ रुके थे तब भुआ-फूफा जी भी नहीं थे,लाखेश भाई साहब भी दिल्ली गए हुये थे। अगले दिन मंजू भाभी जी छोटी बेटी स्वाती को डा के पास दिखाने ले गईं ,मुझे भी ले गईं थीं। दवा के रु 10/-देने थे बोलीं अपना पर्स भूल आए है क्या आपके पास रु 10/- हैं?जो सफर मे बाहर निकला हो वह बिलकुल खाली हाथ कैसे निकाल सकता है?मैंने तत्काल एक दस रु का नोट दे दिया। वह बोलीं घर पर मांग लीजिएगा, भला भतीजी की दवा के दस रु भी मांगने वाली बात थी?हमे ऐसे संस्कार हमारे माता-पिता से नहीं मिले थे। हम अपना बैग उठा कर यूनियन दफ्तर होते हुये कानपुर सेंट्रल पहुंचे और केले खाकर लच कर लिया। उस समय हम तो रात की अवध एक्स्प्रेस से जाने के इंतजार मे वेटिंग रूम मे बैठे थे। एक टी टी साहब  आए और उन्होने सुझाव दिया कि यदि वह पहले जाने की गाड़ी का बंदोबस्त कर दें तो क्या हम शाम तक घर नहीं पहुँच जाएंगे। भला स्टेशन के वेटिंग रूम मे बैठने का कोई तुक तो था नहीं। कोई सज्जन इलाहाबाद से कानपुर जाना चाहते थे और उन्हें मजबूरी मे टूंडला तक का टिकट लेना पड़ा था ऐसे ही टिकट को दूसरे अपने साथी से मँगवा कर उन्होने मुझे दे दिया और कुल रु 50/- लिए । टूंडला से बस पकड़ कर 05 बजे तक मै आगरा घर पहुँच गया था।

भुआ और लाखेश भाई साहब का चाय-दूध का बंदोबस्त अलग-अलग था ,खाना एक साथ था। वह नव-रात्र के दिन थे भुआ तो उपवास भी रखती थीं। लाखेश भाई साहब दफ्तर से लौटते मे कुछ अधिक टाफिया लाये और यशवन्त को सौंप कर कहा एक एक कर खाते रहना परंतु उससे मंजू भाभी जी ने वह पेकेट ले लिया एवं एक टाफी पकड़ा दी। उसके बाद उस पेकेट का क्या हुआ?चलने तक खबर न थी। यह भी सुनने मे आया था कि बाद मे जब लाखेश भाई साहब ने कार ले ली थी तो भाभी जी शराब के नशे मे चलते हुये टकरा बैठी थी और रीढ़ मे चोट खा ली थी। शायद सभी अमीर हमेशा ही नशे मे रहते हैं। अच्छा ही है उन लोगों ने रिश्ता नहीं माना वरना एक कि मी दूरी पर रह कर वे हमारा कितना नुसान करने की स्थिति मे होते?

भुआ के यहाँ दो रोज रुके थे। तीसरे दिन चल दिये थे । दूसरे दिन फूफा जी ने अपने दोस्त और शालिनी के फूफाजी के यहाँ मिलने जाने को कहा जो टेलर मास्टर थे। भुआ के यहाँ से नाश्ता करके ही चलना पड़ा और शालिनी के फूफा जी  की आर्थिक स्थिति टफ थी उनकी एक पुत्री रु 600/- की टीचरी करके गुजारा कर रही थीं। अतः उनके घर हम लोगों ने खाना खाना उचित नहीं समझा और भुआ के यहाँ हम लोगों के खाने का बंदोबस्त इसलिए नही हुआ कि शालिनी की भुआ खिलाएँगी। रात को ही खाना हुआ।

उस समय तक जेनरल कम्पार्टमेंट से जाना-आना मुश्किल न था यह जाफ़र शरीफ साहब की मेहरबानी से बहौत बाद मे मुश्किल हुआ है। लिहाजा हम लोग अवध एक्स्प्रेस से जाने के लिए रात का खाना खा कर सेंट्रल प्लेटफार्म पर आ गए। यशवन्त गोदी मे था और एक बेंच पर दो मोटे-मोटे लोग पसार कर आराम से बैठे थे। मैंने शालिनी से कहा उस बेंच पर बच्चे को लेकर बैठ जाओ परंतु उनकी हिम्मत उन लोगों से कहने की नहीं हुयी तो मुझे ही कहना पड़ा। बाद मे यह पता चलने पर कि हम लोग भी कमला नगर ,आगरा मे ही रहते हैं और उनका एवं हमारा घर आगे-पीछे की रो मे ही है तब उन लोगों ने मुझे भी बैठा लिया। वस्तुतः वहाँ उनके पुत्र रहते थे और यह साहब कहीं जज साहब के पी ए थे। बाद मे कल्याण सिंह की बिरादरी का होने के कारण तथा पूर्व मे ही वकालत पास होने के कारण यह खुद भी जज बन गए और जब रिटायरमेंट के बाद कालोनी मे रहने आए तो सब इन्हें जज साहब के रूप मे ही जानने लगे,किसी को पता ही नहीं है कि उनके प्रोमोशन का राज ?उन्हें तो संगम एक्स्प्रेस से टूंडला तक जाना था उनकी गाड़ी पहले आ गई और वह पहले चले गए। हमारी गाड़ी आने पर हम लोग भी चल दिये। हम तो आगरा फोर्ट पर उतरे उन्हें टूंडला से जीप से आना पड़ा होगा।

कुल मिला कर यह यात्रा खर्च करने के बाद भी खुश न करने वाली रही। ........





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