रविवार, 17 जुलाई 2011

आगरा/१९८०-८१( कारगिल/भाग-३)

  

मेनेजर टोनी चावला जी जब तक उनकी श्रीमती जी नहीं आई थीं बेहद अश्लील चुटकुले सुनाया करते थे.सेखों तथा इंज.सूप.इंटरेस्ट लेकर सुनते थे बाकी लोगों के लिए मजबूरी था.हालांकि होटल मालिक के बेटे बशीर अहमद जान साहब भी चुटकुले सुनाने  वालों में थे परन्तु उनके चुटकुलों को अश्लील नहीं कह सकते ,उदाहरणार्थ उनका एक चुटकुला यह था-
कारगिल आने से पहले पड़ता है द्रास.

दूर क्यों बैठी हो ,आओ बैठें पास-पास..  

बशीर साहब सुन्नी होते हुए भी भोजन से पूर्व बिस्कुट,ब्रेड,रोटी जो भी हो थोडा सा हाथ में लेकर मसल कर चिड़ियों को डालते थे.उन्होंने इसका कारण भी स्पष्ट किया था -एक तो हाथ साफ़ हो जाता है,दुसरे चिड़ियों के खाने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि,वह भोज्य पदार्थ खाने के योग्य है (क्योंकि यदि चिड़िया को तकलीफ होगी तो पता चलने पर उस भोजन का परित्याग करेंगे),और पुण्य तो है ही.चावला जी की श्रीमती जी के आने के बाद बशीर साहब श्री नगर लौट गए थे.

बशीर साहब के पिताजी गुलाम रसूल जान साहब एम्.ई.एस.में ठेकेदार थे.उन्होंने श्री नगर के लाल चौक में 'हाई लैंड फैशंस'नामक दूकान बेटों को खुलवा दी थी.लकड़ी के फर्श,छत और दीवारों के कमरे श्री नगर में बनवा कर ट्रकों से कारगिल पहुंचवाए थे और यह 'होटल हाई लैंड्स'बनवाया था.१९७९ में जब सोमनाथ नाग (यह मुग़ल ,आगरा में फ्रंट आफिस सुपरवाईजर रहे थे) कारगिल में मेनेजर बन कर आये थे तब बशीर साहब के छोटे भाई नजीर अहमद साहब असिस्टेंट मेनेजर उनके साथ थे जिनके लोकल लद्धाखियों से खूब झगडे होते थे.अतः निजी तौर पर उनकी एंट्री बैन कर दिए जाने के कारण बशीर साहब को भेजा गया था.वह बीच-बीच में आते रहते थे.सारे स्टाफ के साथ बशीर साहब का व्यवहार बहुत अच्छा था.

हम लोग बस में तडके कोट वगैरह पहन कर बैठे थे.बीच रास्ते में तेज गर्मी हो गई मैं तो वैसे ही सब पहने रहा परन्तु एस.पी. ने कोट उतार दिया और पर्स निकाला नहीं.एक जगह बस रुकने पर चाय -बिस्कुट के लिए वह पेमेंट करना चाहते थे जेब पर हाथ डाला तो सन्न रह गए ,पेमेंट मैंने कर दिया और तसल्ली भी दिलाई कि,पर्स सुरक्षित मिल जाएगा.बस में लौटने पर कोट ही नहीं दिखाई पड़ रहा था,जिस सीट पर हम लोग बैठे थे वह ढीली थी और आगे खिसक आती थी मैंने सब लोगों को उठवा कर सीट उठाई तो कोट मिल गया और उसमें रखा एस.पी. का पर्स भी तब उनकी जान में जान आई.

श्रीनगर हम लोग शाम को पहुंचे और रु.१५/- बेड के हिसाब से एक शिकारा में सामान रखा.उसमें तीन बेड थे यदि और कोई आता तो उसे उसमें एडजस्ट करना था परन्तु कोई आया नहीं.एस.पी. और मैं पहले रोडवेज के काउंटर पर गए और अगले दिन का जम्मू का टिकट लिया.फिर रात का खाना खाने के इरादे से बाजार में गए .वहां बशीर साहब ने  हमें देख लिया और पहले चाय-नाश्ता एक दूकान पर कराया और काफी देर विस्तृत वार्ता के बाद हम दोनों को एक रेस्टोरेंट में खाना भी उन्हीं ने खिलाया.

अगले दिन सुबह तडके श्रीनगर से बस चल दी.शाम तक हम लोग जम्मू में थे.ट्रेन पकड़ कर आगरा के लिए रवाना हो गए और अगले दिन आगरा भी पहुँच गए.घर में अचानक पहुँचने से सब को आश्चर्य भी हुआ और यह भय भी कि क्या नौकरी सुरक्षित बचेगी ?क्या हुआ अगली बार......

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