बुधवार, 9 मार्च 2011

क्रांति नगर मेरठ में सात वर्ष (१५)

अक्टूबर १९७४ में बाबूजी तो आगरा चले गए थे.ट्रक से सामान के साथ ही सब गए थे मैं भी पहुँचाने गया था.जून १९७५ तक मैं सरू स्मेल्टिंग की सर्विस में था और 'आपात काल ' लागू होने के बाद बेरोजगार होकर आगरा लौटा था. बाकी बातों के लिये यह समय बहुत महत्त्वपूर्ण रहा था.शोभा की शादी तय हो गयी थी और नवम्बर में उसकी एंगेजमेंट हुई.मैं छुट्टी लेकर आगरा गया.भुआ-फूफाजी कानपुर से आये थे और किसी बात को लेकर भुआ एवं अजय में तीखी झड़प हो गई थी.लिहाजा अलीगढ़ बाबूजी भुआ फूफा जी और शोभा गए थे .अजय के कारण बउआ के साथ मैं भी आगरा में रुका रहा.उसी दिन रात तक सब लोग वापिस लौट आये थे.भुआ-फूफा जी वहां से मथुरा नरेंद्र चाचा के पास चले गए थे फिर सीधे कानपुर लौट गए.

मेरी ड्यूटी ५ साँय समाप्त होने के बाद वक्त काटने के लिये अक्सर श्री सौरभ माथुर की राशन (केरोसिन) की दूकान पर उनके साथ वार्ता करने रुक जाता था.कभी-कभी सुरीली मौसी के घर भी चला जाता था. सुरीली मौसी महेश नानाजी की भांजी हैं.उनकी माता तो नानाजी की फुफेरी बहन होने के नाते हमारी बउआ की भुआ थीं जबकी उनके पिताजी हमारे बाबूजी के मौसेरे भाई थे.वह शोभा की सितार टीचर भी रहीं या यों कहें कि उन्हीं के कारण शोभा को सितार लेना पड़ा.वह हमारे रूडकी रोड वाले मकान में भी कई बार बुलाने पर आ जाती थीं.

हमारे साथियों में से मुकेश मुटरेजा तो एशियन पेंट्स में स्टोर क्लर्क बन कर आगरा चले गए थे.एक सुरेन्द्र गुप्ता जो मोदी नगर के कपडा व्यापारी के पुत्र थे मेरठ कालेज से एल.एल.बी.कर रहे थे.उन्होंने मुझसे भी' ला ' कर लेने को कहा था.गोविन्द बिहारी मौसा जी भी व्यंग्य  में कहते थे 'ला' कर लो.शायद मैंने एडमीशन न लेकर गलती ही की.वैसे सुरेन्द्र कालेज के डिसकशंस बताते रहते थे.उन्होंने पहले ही बता दिया था -इंदिरा जी के खिलाफ फैसला हो सकता है क्योंकि श्री जग मोहन लाल सिन्हा दबंग-ईमानदार न्यायाधीश है.सिन्हा जी के एक रिश्तेदार प्रो.सिन्हा मेरठ कालेज में 'ला' पढ़ते थे.वही ये बातें बतलाते थे.जब श्री सिन्हा मेरठ में सिविल जज थे और चौ.चरण सिंह उ.प्र.के मुख्य मंत्री तब एक केस में वह श्री सिन्हा की कोठी पर किसी की पैरवी वास्ते पहुंचे.जज सिन्हा सा :ने अर्दली से पुछवाया कि उ.प्र .के मुख्य मंत्री या चौ.चरण सिंह किस हैसियत से वह आये हैं पता करके आओ.चौ.सा :ने कहला भेजा जज सा :से कहो उ.प्र.के मुख्य मंत्री उनसे मिलना चाहते है.जज सा:सिन्हा जी ने अर्दली से कहला दिया कि उन से कहो वह वापिस लौट जाएँ जज सा: को मुख्य मंत्री जी से नहीं मिलना है.चौ.सा को बैरंग लौटना पड़ा और बाद में फैसला उस शख्स के खिलाफ हुआ जिसकी पैरवी वह करने गए थे.(यदि यह आज की बात होती तो शायद जज सा :की हत्या ही हो जाती).उन्हीं प्रो. सिन्हा ने यह भी बताया था कि १९८० के बाद से श्रम-न्यायालयों में फैसले श्रमिकों के खिलाफ होने लगेंगे.वास्तव में १९८० में इंदिराजी की दुबारा सत्ता में वापिसी के बाद से ऐसा ही हो रहा है जिसका शिकार खुद मैं भी हूँ.

होली के बाद होने वाले माथुर फंक्शन के लिये सौरभ माथुर ने मुझसे अपना कंट्रीब्यूशन न देने को कहा क्योंकि मैं वहां पर अकेला था.लेकिन अपने साथ मुझे कार्य-क्रम में ले गए.शायद उस वक्त अन्न की कमी के कारण दावतों आदि पर पाबंदी थी.एरिया राशन आफीसर विजय कुमार माथुर ने कह दिया था घोषणा कूटू के आंटे के फलाहार की करके बाकायदा पूरी वगैरह चलवा लेना. वह खुद कार्य-क्रम में शामिल नहीं हुए परन्तु उनके परिवारीजन आये थे.चूंकि मैंने कंट्रीब्यूशन नहीं दिया था इसलिए भोजन नहीं किया और आ कर अपने होटल पर ही खाना खाया था.फिर भी सौरभ माथुर के छोटे भाई दीपक (जो उनके रोडवेज में बस कंडक्टर बनने के बाद उनकी राशन की दुकान सी.डी.ए. आफिस से आफ करके देखते थे) ने मुझे एक कप आईसक्रीम जबरदस्ती खिला ही दी थी

सम्पूर्ण कार्य -क्रम में एक नाटक बहुत संदेशपरक लगा.एक कामचोर व्यक्ति अपनी कं.से अक्सर अपनी पत्नी की बीमारी का बहाना बना कर बीच दिन में भाग आता था और इधर-उधर मस्ती करता-फिरता था.वह घर का भी कोई काम नहीं करता था .एक दिन जब उसकी पत्नी कुछ खरीदारी करने जाने वाली थी वह व्यक्ति अपने एक और साथी को उसकी बीमारी का बहाना बना कर घर आ कर टी.वी. देखने लगा.उधर उसके आफिसर ने एक और अधिकारी को साथ लेकर उसके घर पर दस्तक दे दी.अब जब इन महाशय को पता लगा आफीसर घर धमक गए हैं तो तत्काल नौकर के लड़के को बुलाकर लिहाफ(रजाई) उढा कर लिटा दिया दुसरे साथी को पिछले दरवाजे से भगा दिया.परेशानी का भाव लेकर दरवाजा खोला.अफसर सा :को जब पत्नी की दास्तान सुना रहे थे तभी उनकी पत्नी ने प्रवेश किया और यह सब किया हो रहा है जानना चाहा.वह आफीसर सा :बोले इनकी पत्नी बहुत बीमार रहती हैं यह अक्सर जल्दी गहरा जाते हैं हम उन्हें देखने आये हैं.श्रीमान जी की पत्नी भौचक रह गयीं और बोलीं इनकी पत्नी तो मैं हूँ यह कौन है -कह कर रजाई हटा दी और नौकर को खूब डांटा.आफीसर महोदय ने तत्काल प्रभाव से उन श्रीमान जी की सेवाएं समाप्त कर दीं.उस नाटक में पत्नी की भूमिका एक युवती ही ने की थी जिसकी खूब चर्चा रही क्योंकि किसी जवान लडकी का यों किसी की पत्नी कहा जाना अच्छा नहीं समझा जाता था तब तक.

 यों तो अनेकों बातें हैं मेरठ रहने के दौरान की किन्तु एक बहुत महत्वपूर्ण घटना का ही वर्णन और करेंगे अगली बार......
     
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4 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया जा रही है आपकी संस्मरण यात्रा ! नाट्य कथा मजेदार लगी !झूट ज्यादा दिन छुपता नहीं यही सार है !

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  2. गुरूजी इस बार पढ़ने में बहुत मजा आया .. .!धन्यवाद..

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  3. बढ़िया रोचक संस्मरण !

    शुभकामनायें !!

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